स्वामी विवेकानन्द Swami Vivekananda biography in Hindi राष्ट्रीय युवा दिवस प्रतिवर्ष 12 जनवरी को महान मानव समाज के विवेकानंद जी जन्म दिवस के तौर प्रतिवर्ष मनाते है
आइये उनके जीवन को हम इस लेख से Swami Vivekananda को जानने का प्रयाश करते हैं
स्वामी विवेकानन्द ने सर्व समभाव और जनसेवा का जो मंत्र फूंका, उसे जानने- समझने की आज भी जरूरत है। उस समय भारत जिस गुलामी को झेल रहा था, वह स्पष्ट दिखाई देती थी। जबकि आज वह मन की गहराई में छिपकर बैठी हुई अपना काम कर रही है। आज भी उनके उद्घोष की भारतीयों को जरूरत है-Swami Vivekananda Quote
“उठो, जागो और श्रेष्ठ को प्राप्त करो।”
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Swami Vivekananda स्वामी विवेकानन्द जीवन परिचय
Swami Vivekananda-स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 ( संवत् 1920 माघ कृष्णा सप्तमी) को कलकत्ता के एक सम्पन्न घराने में हुआ था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त नगर के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी माता भुवनेश्वरी एक धर्मपरायण महिला थी। उनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था।
बालक नरेन्द्र को माता-पिता ने बड़े लाड प्यार से पाला। पढ़ाई-लिखाई में भी उनकी गति बराबर अच्छी रही। एण्टेंस परीक्षा में अपने स्कूल से केवल वे ही उस वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। बाद में उन्होंने कॉलेज में पढ़कर बी.ए. किया। कॉलेज में पढ़ते वक्त उनकी व्याख्यान देने में बड़ी रूचि थी। संगीत में भी उनकी रूचि थी।
ब्रह्म समाज की बैठकों में उनके भजन बहुधा लोगों को मुग्ध कर लेते थे। उनका शरीर स्वस्थ, सुगठित तथा सुन्दर था। कुश्ती, दौड़, घुड़दौड़ और तैराकी आदि की प्रतियोगिताओं में वे उत्साहपूर्वक भाग लेते थे।
युवक नरेन्द्र अक्सर धार्मिक प्रश्नों में विचार मग्न रहते थे। पाश्चात्य विज्ञान और दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया था। किन्तु उनके जिज्ञासु मन को शांति नहीं मिल रही थी। ब्रह्म समाज की बैठकों में बराबर भाग लेते थे, किन्तु इससे भी संतोष नहीं हो रहा था।
जीवन के पूर्व हम कहाँ थे?
मृत्यु होने पर कहाँ जायेंगे ?
सृष्टि कोई घटना है या रचना?
क्या इसका कोई निर्माता है ?
परमात्मा क्या है ? है भी या नहीं
इत्यादि प्रश्न उनके मन में उठा करते थे, पर कोई समाधानकारक उत्तर उन्हें नहीं मिल रहा था।
रामकृष्ण से Swami Vivekananda का मिलन ( विवेकान्द के गुरु)
उन्हीं दिनों रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे। जनसाधारण को उनके प्रति बड़ी श्रद्धा थी। एक दिन तरूण नरेन्द्र भी वहाँ पहुँचे पर श्रद्धाभाव से नहीं वरन् केवल कौतूहल से प्रेरित होकर। स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस से अपनी पहली भेंट का वर्णन इस प्रकार किया है, “वे बिल्कुल साधारण आदमी दिखाई पड़ते थे। उनके रूप में कोई विशेष आकर्षण नहीं था। बोली बहुत सरल व सीधी थी।
मैंने सोचा कि क्या यह संभव है कि वे सिद्ध पुरूष होंगे। मैं उनके पास पहुँचा और सीधे ही प्रश्न किया-“महाराज, क्या आप ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं ?”
उन्होंने बड़े शांत भाव से कहा-‘हाँ।’ फिर मैंने पूछा-‘क्या आपने उसे देखा है ?’
जवाब मिला-‘हाँ, देखा है और देख रहा हूँ, वैसे ही जैसे तुम्हें या उस दीवार को।’ मैंने इस प्रकार के प्रश्न पहले भी कई लोगों से किये थे, परन्तु किसी ने ऐसा निर्भीक और स्पष्ट उत्तर नहीं दिया था। मुझे विस्मय हुआ। पुनः मैंने केवल इतना पूछा-‘तो क्या आप किसी दूसरे को भी परमात्मा दिखा सकते है ?’
परमहंस ने मुस्कराकर अत्यन्त शांत भाव से कहा-“हाँ, यदि कोई देखने वाला हो।’ मैं कुछ और न पूछ सका। मुझ पर उनके
शब्दों का गहरा प्रभाव पड़ा।”
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स्वामी विवेकानन्द के पिता का देहांत
नरेन्द्र ने बी.ए. पास कर कानून का अध्ययन आरम्भ किया। इसी बीच उनके पिता का देहावसान हो गया। नरेन्द्र पर आपत्तियाँ आ पड़ी। हड़बड़ाकर रामकृष्ण के पास पहुंचे और बोले, “आप अपनी माताजी से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए, मुझसे कुटुम्ब का कष्ट नहीं देखा जाता।” उत्तर में उन्होंने इतना ही कहा कि “जा और माता के सामने खड़े होकर जो चाहे वह मांग ले।”
नरेन्द्र पर ब्रह्म समाज का प्रभाव था, मूर्तिपूजा में उन्हें विश्वास नहीं था, पर स्वार्थवश वे गये। किन्तु जब मांगने के लिए मुँह खोला तो विवेक, ज्ञान और वैराग्य का ही वरदान मांग बैठे। अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ मांगने की उनकी इच्छा ही नहीं हुई। लौटने पर रामकृष्ण ने पूछा
भी-“जगदम्बा से तुमने क्या मांगा?”
नरेन्द्र ने उत्तर दिया-“जगदम्बा से दुनिया की चीजें मांगना मुझे नहीं सूझा।” रामकृष्ण ने हंसकर कहा-“मैं जानता था, तू तुच्छ वस्तु माता से नहीं मांगेगा।” नरेन्द्र के मन पर इस भेंट का भी बड़ा प्रभाव पड़ा। वे उस समय तो घर लौट गए, पर उनका मन अब सांसारिक जीवन में लगता न था। वकालत की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ने लगी। माँ विवाह के लिए आग्रह कर रही थी, पर जो संसार से ही विरक्त होता जा रहा हो वह विवाह के बंधन में कैसे पड़ता?
नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda)
आखिर एक दिन नरेन्द्र ने घर छोड़ दिया और सदा के लिए रामकृष्ण के पास जा पहुंचे। रामकृष्ण को एक सच्चा शिष्य मिल गया। नरेन्द्र अब संन्यासी हो गये और उनका नाम विवेकानन्द हो गया।
1886 में रामकृष्ण परमधाम सिधारे। विवेकानन्द ने रामकृष्ण का संदेश विश्व में फैलाने का व्रत लिया। इसके लिए वे 6 वर्ष तक सन्यासी के रूप में चारों ओर घूमकर अपने ज्ञान की वृद्धि तथा आत्मिक शक्ति का संचय करते रहे। उसके बाद वे अपने संकल्प के अनुसार देश-विदेश में भारतीय धर्म और दर्शन के प्रसार के महान् कार्य में जुट पड़े। अपनी आध्यात्मिक शिक्षा के संबंध में विवेकानंद अपने आपको रामकृष्ण परमहंस का चिरऋणी मानते थे।
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स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में
भारतीय जीवन दर्शन तथा तत्व ज्ञान से पश्चिमी देशों को परिचित कराने के लिए वे 31 मई, सन् 1893 को बम्बई से रवाना हुए और संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो नगर में होने वाले सर्व-धर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए पहुंचे। उनके पास कोई परिचय पत्र अथवा किसी संस्था की ओर से प्रतिनिधि पत्र नहीं होने के कारण पहले तो उन्हें कोई महासभा में प्रवेश देने को तैयार नहीं हुआ किन्तु अन्त में उनके दृढ़ संकल्प और विश्वास की विजय हुई और उन्हें उक्त महासभा में बोलने का अवसर मिल गया। बस बोलने भर की देर थी, श्रोताओं पर उनकी योग्यता और व्यक्तित्व की धाक जम गयी। विवेकानन्द ने भारतीय धर्म की उदारता, सहिष्णुता तथा आध्यात्मिक आदि गुणों की ऐसी सुन्दर और प्रभावमयी व्याख्या की कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो गए।
इस पहले ही व्याख्यान से स्वामीजी की कीर्ति सर्वत्र फैल गई। प्रायः सभी समाचार पत्रों ने स्वामीजी के व्याख्यानों की प्रशंसा की
स्वामी विवेकानन्द का विदेश यात्रा
अमेरिका प्रवास के बाद विवेकानन्द इस इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड की यात्रा भी कर आये। अगस्त 1895 में उन्होंने अमेरिका छोड़ा। जनवरी 1897 में वे लंका की राजधानी कोलम्बो पहुँचे। इस समय तक उनका नाम संसार के हर कोने में फैल चुका था। अमेरिका की तरह इंग्लैंड आदि देशों में भी स्वामी जी के भाषणों की बड़ी धूम रही। कुछ ही दिनों में स्वामी जी के सदुपदेशों का विदेशों में इतना प्रभाव जम गया कि कई नर-नारी उनके
शिष्य बन गये। इनमें कुमारी नोबल भी थी, जो विवेकानन्द की अनुयायिनी बनकर ‘भगिनी निवेदिता‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
कोलम्बो से विवेकानंद भारत लौटे। देश-विदेशों में भारतीय संस्कृति और तत्त्व ज्ञान का डंका बजाकर लौटने वाले इस महापुरूष के स्वागत में भारतीय जनता ने आँखें बिछा दीं। भारत लौटने पर भी स्वामी जी का सद्धर्मोपदेश का काम पूर्ववत् चलता रहा। देश में स्थान-स्थान पर वे गये और उन्होंने अंध विश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त।
धर्म व मानवता पर स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक विचार ,सिद्धांत
भारतीय तत्त्व ज्ञान और धर्म का परिचय जनता को देने का प्रयत्न किया। स्वामीजी के व्याख्यानों में व्यावहारिक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाता था। उन्होंने लोगों को आवश्यकता के अनुरूप ही धर्म तत्त्व समझाये। इंग्लैंड और अमेरिका को उन्होंने संयम और त्याग का महत्व सिखाया तो भारतवासियों का ध्यान उन्होंने विशेष रूप से देश की आर्थिक और सामाजिक दुरावस्था की ओर खींचा। भारत में दिए गए अपने भाषणों में उन्होंने अधिक जोर समाज सेवा पर दिया।
सन् 1897 में जब प्लेग और अकाल का प्रकोप भारतवासियों को परेशान कर रहा था और हजारों व्यक्ति भूख और रोग के शिकार हो रहे थे, तब स्वयं स्वामीजी बड़ी तन्मयता के साथ लोगों की सेवा में जुटे हुए थे।
इस सेवा कार्य को नियमित और व्यवस्थित रूप देने के लिए कलकत्ता लौटने पर विवेकानन्द ने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण मिशन‘ की स्थापना की। पहले तो सन्यासियों ने इस कार्य को दुनिया के बंधन में फंसाने वाली वस्तु समझकर उसमें पड़ना अस्वीकार किया, पर अन्त में वे सेवा का रहस्य समझकर इसमें भाग लेने को तत्पर हो गये। आज रामकृष्ण मिशन की शाखाएं भारत के कोने-कोने में फैली हुई हैं। रोगी,
भूखे, अपाहिज, अपढ़ और अछूतों की सेवा कर रही हैं। इस मिशन के अन्तर्गत पहला आश्रम कलकत्ता के निकट बेलूर में और दूसरा अल्मोड़ा जिले में मायावती नामक स्थान पर खुला।
स्वामी विवेकानन्द की संस्थाए
स्वामी जी भारतीय दर्शन तथा तत्त्वज्ञान के अन्यतम व्याख्याता थे। उन्होंने वेदान्त की दार्शनिक विचारधारा को सामाजिक उपयोगिता की भूमि पर ला उतारा। अज्ञान, अंधविश्वास, अशिक्षा, विदेशी अनुकरण दासता, दुर्बलता आदि बुराइयों पर उन्होंने कठोरता से चोट की। दीर्घकालीन विदेशी प्रभुत्व में रहते-रहते भारतीय के हृदय में हीनता की भावना ने जड़ पकड़ ली थी, उसे दूर करने के लिये उन्होंने आत्मवाद् का प्रचार किया। उन्होंने बल देकर कहा कि वेदान्त पुरूषार्थ का समर्थक है, अकर्मण्यता का नहीं।
दो-ढाई वर्ष तक भारत में कार्य करने के बाद स्वामीजी को अपने विदेशी भक्तों के अनुरोध पर एक बार फिर इंग्लैंड और अमेरिका जाना पड़ा। लगभग एक वर्ष तक वहाँ उन्होंने लोगों को अध्यात्म का संदेश सुनाया। अकेले फ्रांसिस्को में ही भक्तों की सहायता से वहाँ वेदान्त सोसायटी और शांति आश्रम नाम की दो संस्थाएं भी स्थापित की जो आज भी बड़ा अच्छा काम कर रही हैं। वहाँ से स्वामीजी पेरिस के धार्मिक सम्मेलन में सम्मिलित होने गए। वहाँ से चलकर यूरोप के कई अन्य देशों की यात्रा करते हुए भारत लौटे।
स्वामी जी को अपने देश की मिट्टी और उसकी संतान से सच्चा प्रेम था। वे देश की तरुण पीढ़ी को शक्तिमान देखना चाहते थे। विवेकानंद को अपने देश के प्राचीन आचार्यों पर बड़ी श्रद्धा थी। इतने बड़े धर्मोपदेश होते हुए भी उनमें दुराग्रह कहीं नाममात्र को भी न था। उदारता और हृदय की विशालता उनके महानतम गुण थे।
मृत्यु का कारण -Death of Swami Vivekananda
धर्म की व्याख्या बड़ी उदार और व्यापक थी। देश का दुर्भाग्य था कि स्वामी विवेकानंद ने दीर्घ आयु नहीं पायी। स्वभाव से वे अत्यंत परिश्रमी थे। उनका सिद्धांत था कि इस क्षणभंगुर जीवन में लेश मात्र भी आलस्य नहीं करना चाहिए। जीवन के अंतिम दिनों में उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता
था, किन्तु इतने में भी उनकी जीवनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। वे अपने जीवन के अंतिम क्षण तक जागरूक तथा कर्मरत बने रहे। 4 जुलाई, 1902 को अपने विद्यार्थियों का पाठ समाप्त कर स्वामी जी टहलने गये, लौट कर आए तो ध्यानमग्न होकर बैठ गए। यही ध्यान उनकी महासमाधि थी।
उपसंहार -विवेकानन्द जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। विद्यालयों में इस दिन युवा शक्ति का स्वरूप, लक्ष्य, भविष्य आदि का ज्ञान कराते हुए उनके अच्छे बुरे संस्कारों को भी रेखांकित करना चाहिए। विश्व स्तर पर अथवा राज्यों, जिलों, आदि के स्तर पर क्या स्थिति है उसका तुलनात्मक विवेचन होना चाहिए। युवा शक्ति ही देश का भविष्य है।
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