सूफीवाद भारत में Sufism in India सूफी आंदोलन के सिद्धांत, सूफी संत ,सूफी सम्प्रदाय के नाम इनके विचार व उद्देश्य ,मत व भारत में विकास को समझेंगे
जैसे -सूफी वाद से आप क्या समझते हैं ?
सूफी आन्दोलन की शुरुवात कैसे हुई ?
कादिरी संप्रदाय क्या है ?
निजामुद्दीन औलिया कौन थे ?
सूफी का अर्थ -Sufism in India and Meaning
Sufism in India-सूफी मत रहस्यवादी एवं उदारवादी विचारों से प्रभावित होकर इस्लाम धर्म में एक संप्रदाय का अभ्युदय हुआ उसे ही सूफी संप्रदाय कहा जाता है सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सूफ’ शब्द से हुई है। सूफ का अर्थ बिना रंगा हुआ ऊन का लवादा होता है। उसे वैरागी या संन्यासी धारण करते थे।
डॉ. यूसुफ हुसन के अनुसार, “सूफीवाद Sufism in India का जन्म इस्लाम के हृदय से हुआ है।
दिनकर जी ने सूफीवाद को इस्लाम का रहस्यवादी रूप माना है। कुछ इतिहासकारों ने यह स्वीकार दिया है कि सूफी धर्म हिन्दू विचारधारा, विश्वासों एवं रीति-रिवाजों से प्रभावित हुआ है। सूफी धर्म शान्ति एवं अहिंसा का सिद्धान्त ईसाइयों, हिन्दुओं, बौद्धों एवं जैनियों से लिया है। शरीर को यातनाएँ देना तथा 48 रातों तक तपस्या करना हिन्दू, बौद्ध एवं जैन प्रथाओं का अनुकूल है। इसीलिए
सूफी धर्म के प्रति हिन्दुओं का विशेष लगाव है।
(1) भारत में सूफी सम्प्रदाय का विकास-सर्वप्रथम अरब व्यापारियों के साथ दक्षिण भारत में सूफी मत के लोग आये थे। भारत में अबुल हसन हूज सूफी मत का वास्तविक प्रचारक था। उसका जन्म गजनी में, शिक्षा बगदाद में एवं निधन लाहौर में हुआ था। सूफी सम्प्रदाय का उत्तर भारत में 12 वीं शताब्दी में मोइनुद्दीन चिश्ती ने प्रचार किया था। बाबा फखरुद्दीन ने दक्षिण भारत में 13वीं सदी में प्रचार किया था। उनका जीवन अत्यन्त सरल होता था।
(ii) सूफी मत के सिद्धान्त- Sufism Concept-Sufism in India
सूफी मत के सिद्धान्त या विशेषताएँ भक्ति मार्ग के सिद्धान्त से मिलते-जुलते थे। उनकी विशेषताएँ निम्नानुसार थीं-
- एकेश्वरवादी-सूफी मतावलम्बियों का विश्वास था कि ईश्वर एक है। वे अद्वैतवाद से प्रभावित थे। उनके अनुसार ईश्वर एक है। उनके अनुसार अल्लाह और बन्दे में कोई अन्तर नहीं है। बन्दे के माध्यम से ही खुदा तक पहुँचा जा सकता है।
- भौतिक जीवन का त्याग-वे भौतिक जीवन का त्याग कर ईश्वर में विलीन हो जाने का उपदेश देते थे।
- शान्ति एवं अहिंसा में विश्वास-वे शान्ति एवं अहिंसा में विश्वास रखते थे।
- सहिष्णुता-सूफी सन्त धार्मिक दृष्टि से उदार होते थे। उनमें कट्टरता नहीं होती थी। वे सभी धर्मों को समान समझते थे।
- प्रेम का महत्त्व-उनके अनुसार ईश्वर प्रेम के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। प्रेम का अर्थ तड़पन है। प्रेमिका की तड़पन से व्यक्ति ब्रह्म में लीन हो जाता है।
- इस्लाम का प्रचार-वे उपदेश के माध्यम से भारत में इस्लाम का प्रचार करना चाहते थे।
- प्रेमिका के रूप में परिकल्पना-सूफी सन्त जीव को आशिक (प्रेमी) एवं ईश्वर को प्रेमिका (माशूका) के रूप में देखते थे। प्रेमी का प्रेमिका के लिए तड़पन ही प्रमुख विशेषता है।
- शैतान बाधक-उनके अनुसार ईश्वर की प्राप्ति में शैतान सबसे बड़ी बाधा है।
- हृदय की शुद्धता पर जोर-सूफी सन्त इबादत, तपस्या, उपवास, दान आदि तथा तीर्थयात्रा को आवश्यक मानते थे।
- गुरु एवं शिष्य का महत्व-सूफी सन्त इनको विशेष महत्व देते थे। गुरु को पीर एवं शिष्य को गुरीद कहा जाता है। गुरु शिष्यों के लिए नियम बनाता है।
- बाह्याडम्बर का विरोध-सूफी सन्त बाह्याडम्बर का विरोध एवं पवित्र जीवन पर जोर देते थे।
- सिलसिलों में आबद्ध-सूफी सन्त अपने को किसी वर्ग या सिलसिले से सम्बद्ध करके रखते थे।
सूफी सम्प्रदाय-सूफी मत के भारत में निम्नलिखित सम्प्रदाय थे-
चिश्ती सम्प्रदाय Chishti Order -Sufism in India
- चिश्ती सम्प्रदाय के संस्थापक ख्वाजा ईसहाक शामी चिश्ती माने जाते हैं। आइन ए-अकबरी में इसकी स्थापना का श्रेय खुरासान निवासी अबु अब्दाल चिश्ती को दिया है, भारत में इसकी स्थापना का श्रेय ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को ही है।
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 ई. में ईरान के सिस्तान नामक नगर में हआ था। इनके पिता सैय्यद गयासुद्दीन एक धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। इनके गुरु का नाम ख्वाजा उस्मान हारूनी था। अपने गुरु उस्मान के आदेशानुसार आप लाहौर नगर में आये। अन्त में अजमेर में स्थायी रूप से रहने लगे पृथ्वीराज चौहान ने धर्म गुरु रामदेव को शेख को अजमेर से निष्कासित करने के उद्देश्य से भेजा, परन्तु रामदेव उनसे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने शेख का शिष्य होना स्वीकार कर लिया। अजमेर में मुइनुद्दीन चिश्ती ने अपना शेष जीवन व्यतीत करते हुए नश्वर शरीर का त्याग 1236 ई. में किया। आज भी अजमेर में उनकी दरगाह लाखों संतों का तीर्थ स्थल है। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती अपने जीवन काल में इतने लोकप्रिय हो गये थे कि सुल्तान मुहम्मद गोरी ने इन्हें सुल्तान-उल-हिन्द अर्थात् हिन्द का आध्यत्मिक गुरु की उपाधि से विभूषित किया था।
चिश्ती सम्प्रदाय के सिद्धान्त-
1.निर्धनता में विश्वास रखना
2.धन एवं सम्पत्ति से घृणा करना।
3.अमीरों, राजाओं एवं सामन्तों के सम्पर्क से दूर रहना।
4.मानव मात्र की सेवा करना।
5.धार्मिक सहिष्णुता पर बल देना।
6.ईश्वर में विश्वास करना।
7.अत्यन्त संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना।
8.खानकाहों की स्थापना करना।
चिश्ती सम्प्रदाय के अन्य प्रमुख सन्त निम्नलिखित थे-
हमीदुद्दीन नागौरी
-शेख हमीदुद्दीन का जन्म 1274 ई. में हुआ था। कुछ समय बाद से मुइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य हो गये। इनके आध्यात्मिक गुणों से प्रभावित होकर शेख साहब ने इन्हें सुल्तान-उल तरीकीन (असहायों के बादशाह) की उपाधि से विभूषित किया ये अपनी पत्नी के साथ नागौर के सुवल गाँव में रहते थे इनके पास केवल एक बीघा जमीन थी। उसी से अपना तथा पत्नी का जीवन निर्वाह करते थे। ये समन्वयवादी थे। Sufism in India
शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार
काकी-शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जन्म फरगना के गौस नामक स्थान में हुआ था। बख्तियार (भाग्य बंधु) नाम मुइनुद्दीन का दिया हुआ था। काकी (रोटियों वाला) रोटी बाँटने की कहानी के साथ जुड़ा है। अपना अधिकांश समय इन्होंने भ्रमण में व्यतीत किया। इल्तुतमिश के समय ये भारत आये। इल्तुतमिश चिश्ती सम्प्रदाय से बहुत अधिक प्रभावित था उसने शेख कुतुबुद्दीन को शेख उल इस्लाम के पद पर नियुक्त करना चाहा, पर ये सहमत नहीं हुए। फलतः यह पद नजमुद्दीन सुगरा को दिया गया। सुगरा के ईष्या के कारण इन्होंने दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ने का निश्चय किया । परन्तु सुल्तान इल्तुतमिश ,जनसाधारण के प्रेम तथा ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के आदेश पर इन्होंने दिल्ली में रहना स्वीकार कर लिया।
फरीदुद्दीन मंसूद शकरगंज
-इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175ई. में हुआ था। इन्होंने हांसी एवं अजोधन में सूफी मत का प्रचार किया। इन्हीं की प्रतिभा के कारण चिश्तियों सम्प्रदाय अखिल भारतीय स्तर तक पहुँचा ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध हैं। बाबा फरीद शेख कुतुबुद्दीन के शिष्य थे। उनकी मृत्यु 93 वर्ष की अवस्था में 1265 ई. में हो गया और उन्हें
अजोधन में दफनाया गया।
निजामुद्दीन औलिया
शेख निजामुद्दीन औलिया का वास्तविक नाम मुहम्मद बिन अहमदबिन दानियल अलबुखारी था इनका जन्म बंदायू में 1236 ई. में हुआ था। निजामुद्दीन बाबा फरीद के शिष्य थे। अपने जीवनकाल में इन्होंने सात सुल्तानों का जीवनकाल देखा था। ये स्थायी रूप
से गियासपुर (दिल्ली के निकट) निवास करने लगे थे। इनके सम्बन्ध दिल्ली सुल्तानों से अच्छे नहीं थे सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक इनकी लोकप्रियता से इतनी ईर्ष्या रखता था कि इनके संगीत समारोहों के कारण उसने इनके विरुद्ध मुकदमा चलाया इनकी समय में चिश्ती सम्प्रदाय अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। इनके शिष्यों में अमीर खुसरो तथा अमीर हुसैन दहलवी प्रमुख थे। सन् 1325 ई. में शेख निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हो गयीं। गियासपुर में इन्हें दफनाया गया। चिश्ती सम्प्रदाय के सूफी साधनों में ये सबसे लोकप्रिय थे।
शेख सलीम चिश्ती
चिश्ती शाखा के अंतिम महत्वपूर्ण शेख सलीम चिश्ती थे। ये सम्राट अकबर के समकालीन थे। इन्हीं के आशीर्वाद से अकबर का उत्तराधिकारी जहाँगीर का जन्म हुआ था। इनकी खानकाह सीकरी में थीं। इनकी मजार फतेहपुर सीकरी की प्रसिद्ध जामा मस्जिद के आंगन में है जिस पर एक सुन्दर मकबरा बना हुआ है।
चिश्ती सम्प्रदाय के सूफी सन्त हिन्दू मुस्लिम समन्वय वाद के समर्थक थे। भारतीय समाज को उनकी यह सबसे बड़ी देन है। इन साधकों का रहस्यवादी दृष्टिकोण भी हिन्दू धर्म तथा वेदान्त दर्शन पर आधारित था। चिश्ती साधकों ने धन को आध्यात्मिक विकास में अवरोध माना। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती तथा कुतुबद्दीन ने कभी अपने रहने के लिए घर तक नहीं बनवाया। बाबा फरीद के पास केवल एक कच्चा मकान था। हमीदुद्दीन नागौरी के पास एक बीघा जमीन एवं कच्चा मकान था। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती ने एक हिन्दू कन्या से विवाह करके अपने उदारवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया था।
सुहरावर्दी सिलसिला (सम्प्रदाय) Suharavardi Silsila Sufism in India
इस सम्प्रदाय की स्थापना उत्तर-पश्चिम भारत में हुई थी।भारत में इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक शेख बहाउद्दीन जकारिया थे। इनका जन्म मुल्तान के कोट अरोर नामक स्थान पर 1182 ई. में हुआ था। इनकी अधिकांश शिक्षा खुरासान बुखारा तथा मदीना में हुईं। पैगम्बर मुहम्मद के मकबरे में रहकर उन्होंने कई वर्ष ध्यान तथा अराधना में व्यतीत किये। कई साल बाद वे बगदाद में जाकर शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी के शिष्य हो गये और उन्हीं के आदेशानुसार भारत वर्ष में आकर उन्होंने सुहरावर्दी सिलसिला की स्थापना की इनका विश्वास सन्तुलित जीवन में था। वे सम्पत्तिशाली थे और उन्होंने अपने जीवन में काफी धन संग्रह किया इनकी मृत्यु 1268 ई. में हुई।
सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सिद्धान्त-
(1) फकीरी जीवन के स्थान पर सुखमय जीवन पर जोर ।
(2) उपवास तथा भूखे रहकर आध्यात्मिक साधना को अनावश्यक मानते थे।
(3) शासक वर्ग से सम्पर्क एवं सम्बन्ध रखने पर जोर ।
(4) मानव सेवा पर बल।
(5) धन आध्यात्मिक विकास में बाधक नहीं अत: वे धन संग्रह को अनुचित नहीं मानते थे।
(6) परमात्मा के प्रति दृष्टिकोण इस्लामी सिद्धान्तों पर आधारित।
सुहरावर्दी सम्प्रदाय के कुछ महत्वपूर्ण संत निम्नलिखित थे।
- शेख सद्उद्दीन आरिफ-सुहरावर्दी सम्प्रदाय की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इनमें उत्तराधिकार का नियम वंशानुगत था। इसी के अनुसार बहाउद्दीन जकारिया की मृत्यु के पश्चात् उनका ज्येष्ठ पुत्र सद्उद्दीन इस सम्प्रदाय का उत्तराधिकारी हुआ। इन्हें जो सम्पत्ति मिली थी उसे उन्होंने गरीबों में बाँट दी थी। इन्होंने सुहरावर्दी सम्प्रदाय को सादगी की ओर प्रेरित किया।
- शेख रुकनुद्दीन अबुल-फतह-शेख सद्उद्दीन की मृत्यु के पश्चात् सुहरावर्दी सम्प्रदाय का उत्तराधिकारी उनका पुत्र रुकनुद्दीन अबुलफतह हुआ। इस सम्प्रदाय में इनका वहीं स्थान है जो चिश्ती सम्प्रदाय में शेख निजामुद्दीन औलिया को प्राप्त है।
- शेख जलालुद्दीन सुर्ख-शेख जलालुद्दीन सुर्ख बुखारा के निवासी थे। शेख बहाउद्दीन जकारिया के प्रभाव में आकर इन्होंने उनका शिष्य होना स्वीकार कर लिया। इन्होंने सुहरावर्दी सिलसिला के सिद्धान्तों का प्रचार उच्छ में किया। वहाँ के कबायली जातियों को उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कराया।
इस शाखा के अन्य महत्वपूर्ण संत शेख मूसा और शाह दौला दरियाई थे। शेख मूसा अधिकतर स्त्री वेश में रहते थे। मृत्यु से उन्हें विशेष लगाव था। शाह दौला मूसा के शिष्य थे।
भारतीय समाज में सुहरावर्दी सूफी सन्तों का योगदान महत्वपूर्ण है। दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद उन्होंने मुस्लिम समाज में आध्यात्मिक एवं नैतिकता को सजीव रखा। उन्होंने शासक तथा प्रजा के बीच दूरी कम करने का प्रयास किया इस कार्य में हिन्दू भक्तों ने भी इनका साथ दिया।
कादिरी सम्प्रदाय kadiri Order Sufism in India
12 वीं सदी में अब्दुल कादिर जिलानी ने कादिरिया शाखा की स्थापना की। मध्य एशिया तथा पश्चिमी अफ्रीका में इस्लाम के प्रचार का श्रेय इसी शाखा को है भारत में इस शाखा के प्रवर्तक नासिरुद्दीन महमूद जिलानी थे। वे अब्दुल कादिर जिलानी के वंशज थे। भारत आने पर इनके शिष्यों की संख्या बढ़ गई और इनका खूब सम्मान हुआ सिकन्दर लोदी ने अपनी पुत्री का विवाह इनसे कर दिया। ये 1428 ई. में भारत आये और उच्च में बस गये इन्हें मोहम्मद गौस के नाम से भी जाना जाता है। 1517 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। इनके पश्चात् इस सम्प्रदाय के उत्तराधिकारी इनके पुत्र अब्दुल कादिर द्वितीय हुए। बचपन से ही ये अनेक प्रकार के व्यसनों के शिकार हो गये थे लेकिन खलीफा का पद ग्रहण करने के बाद इनके जीवन में कई परिवर्तन आये। इन्होंने सांसरिक सुखों का त्याग कर दिया। इस सम्प्रदाय के सूफी साधकों में शेख दाऊद किरमानी तथा अबुल माअली के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं
कादिरी सम्प्रदाय का उद्देश्य-
इस सम्प्रदाय का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। ये लोग धर्म परिवर्तन के प्रबल समर्थक थे। कादिरी सम्प्रदाय के सिद्धान्तों में कहीं भी उदारवादिता का सिद्धान्त नहीं है।
रुढ़िवादी दृष्टिकोण के कारण ही इन लोगों ने संगीत को कोई स्थान नहीं दिया उदारवादी दृष्टिकोण इनके लिए असत्य था।
कादिरी सम्प्रदाय के सिद्धान्त-
(1) कादिरी सम्प्रदाय के सूफी साधक अपनी टोपी में गुलाब का फूल लगाते थे क्योंकि गुलाब का फूल पैगम्बर का प्रतीक माना जाता था।
(2) इस सम्प्रदाय में संगीत के लिए स्थान नहीं था संगीत इस्लाम के विरुद्ध माना जाता है। इसलिए रुढ़िवादी सूफी साधकों ने संगीत को इस सिलसिले में कोई स्थान नहीं दिया।
(3) इस सम्प्रदाय में जिक्र-ए-जली तथा जिक्र-ए-खफी दोनों प्रकार के जिक्र प्रचलित थे।
(4) इस सम्प्रदाय में परमात्मा के स्मरण के चार तरीके थे यक जरबी, दू जरबी, सेह जरबी तथा चहार जरबी । साधक की आवाज ऐसी होनी चाहिए कि सोने वाले की नींद में बाधा न पड़े। यक जरबी में साधक अपने हृदय और गले से अल्लाह शब्द का उच्चारण करता है।जिक्रदू जरबी के नमाज पढ़ते समय जैसे बैठता है वैसे ही बैठा रह जाता है।
ये लोग शिया सम्प्रदाय के विरुद्ध थे। सुन्नी सम्प्रदाय को इन्होंने पुनः प्रतिष्ठा का स्थान दिया। नक्शबन्दिया सम्प्रदाय (सिलसिला) इस शाखा की स्थापना 14 वीं सदी में बहाउद्दीन नक्शबंद ने की, ये तरह-तरह के नक्शे आध्यात्मिक तत्वों के सम्बन्ध में बनाते थे और अनेक रंगों में भरते थे।
इसलिए इनके अनुयायी नक्शबंद कहलाये। भारत में इस सम्प्रदाय का प्रचार ख्वाजा बाकी बिल्लाह के शिष्य शेख अहमद फारुकी सरहिन्दी ने किया।
अहमद फारुकी का जन्म सरहिन्द में 1563 ई. में हुआ था। इनके विचारों का प्रभाव इतनी तीव्र गति से हुआ कि जहाँगीर भी इनका शिष्य बन गया। 1625 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। ये अपने को कयूम कहते थे। कयूम परमात्मा का नाम है। कयूम का शाब्दिक अर्थ अविनाशी है।
इस सम्प्रदाय के दूसरे संत मुहम्मद मासूम थे इनका जन्म 1599 ई. में हुआ था। ये अहमद फारुकी के तीसरे पुत्र थे। धर्म सम्बन्धी विचार इन्होंने अपने पिता से प्राप्त किये थे।
ख्वाजा नक्शबंद हुजतुल्ला इस सम्प्रदाय के तीसरे कयूम तथा जुबैर कयूम माने जाते हैं। शाह वली उल्लाह इस सम्प्रदाय के प्रमुख सन्त माने जाते हैं। ईश्वर के अतिरिक्त अन्य सभी चीजों को ये काल्पनिक मानते थे। इनका विश्वास कुरान, शरीयत तथा हदीस पर आधारित था। इस सम्प्रदाय वे अंतिम ख्याति प्राप्त संत ख्वाजा मीर दर्द थे। इनका झुकाव मुस्लिम रुढ़िवादिता की ओर अधिक था। इसलिए इन्होंने एक नये मत का प्रतिपादन किया जिसे वह ‘इल्मे इलाही मुहम्मद’ कहते थे।
नक्शबंदी सम्प्रदाय के उद्देश्य Nakshbandi Sufism in India
इस सम्प्रदाय के सूफी संतों का मुख्य उद्देश्य इस्लाम की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित करना था। इन लोगों ने कुरान, हदीस तथा शरीयत के नियमों के पालन पर जोर दिया। इन साधकों न कट्टरता को प्रश्रय दिया। इन्होंने सूफी सिद्धान्तों को इस्लाम के
सनातन पन्थी सिद्धान्त की आधार शिला बनाया। मुगल साम्राज्य के पतन के लिए इन सूफी साधकों का विशेष उत्तरदायित्व है।
नक्शबंदी सम्प्रदाय के सिद्धान्त-
(1) इस सिलसिला के सूफी साधक कादिरी सम्प्रदाय वालों की तरह वस्त्र धारण करते थे, उन्हें बेनवा कहा जाता था। बेनवा का तात्पर्य है दीन अपाहिज।
(2) राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना एवं प्रशासनिक नीति को प्रभावित करना।
(3) ईश्वर तथा मनुष्य का सम्बन्ध मालिक तथा गुलाम का है, प्रेमी और प्रेमिका का नहीं।
(4) परमात्मा के रहस्यों को जानने का एक मात्र साधन शरियत के नियमों का पालन करना
(5) चमत्कारिक शक्ति का प्राप्ति हेतु साधनों को ये लोग जरूरी मानते थे।
(6) परमात्मा इतना महान है कि उसके सामने सृष्टि के पदार्थ नहीं के बराबर है।
भारतीय समाज में सूफी सम्प्रदाय की भूमिका-मध्ययुगीन भारतीय समाज में सूफी सन्तों ने निम्नांकित महत्वपूर्ण भूमिका अदा की-
(1) इस सम्प्रदाय का सबसे महत्वपूर्ण योगदान हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय की भावना पैदा करना था।
(2) सूफी सम्प्रदाय के संतों ने वेदान्त योग, क्रिया, निर्वाण आदि सिद्धान्तों, को अपनाकर अनेक हिन्दुओं तथा बौद्ध धर्मावलम्बियों को आकृष्ट किया और उन्होंने बताया कि सूफीवाद न केवल इस्लाम पर आधारित है बल्कि उसमें हिन्दू तथा बौद्ध सिद्धान्त का भी समावेश है।
(3) सूफी सन्तों ने अपने शिष्यों में समाज सेवा, सद्व्यवहार और क्षमा आदि गुणों पर जोर दिया। उन लोगों ने जनता के चरित्र तथा उनके दृष्टिकोण को सुधारने का प्रयास किया। बर्नी ने स्पष्ट लिखा है कि निजामुद्दीन औलिया के प्रभाव के परिणामस्वरूप जनता के सामाजिक तथा नैतिक जीवन में बड़ा परिवर्तन हुआ।
(4) सूफी सम्प्रदाय के सन्तों ने मुस्लिम शासकों के हृदय में प्रजा की भलाई की भावना पैदा की प्रो. रशीद के अनुसार ये सन्त प्रजा तथा शासक वर्ग के बीच कड़ी थे।
(5) सूफी सन्तों ने साधारण जीवन व्यतीत कर जनता के बीच रहने तथा उनकी समस्याओं को समझने की चेष्ठा की समयानुकूल उनके जीवन में सुधार करने का प्रयास किया।
(6) सूफी सन्तों की निष्ठा एकेश्वरवाद में थी। एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके उन्होंने पारस्परिक मतभेदों को दूर करने की चेष्टा की। इन संतों का सर्वाधिक प्रभाव भक्ति आन्दोलन के समाज तथा धर्म सुधारक रामानन्द, कबीर, नानक तथा चैतन्य पर पड़ा। इन लोगों ने भी एकेश्वरवाद के सिद्धान्त द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने तथा पारस्परिक मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया।
(7) खड़ी बोली अथवा हिन्दुस्तानी जो सर्वसाधारण की भाषा थी। उसके विकास में सूफी सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान था उन लोगों ने खत ठाकुर, डोला, लंगोटी, पालकी, जोहाला, चूना, सोपारी आदि हिन्दुस्तानी शब्दों का खूब प्रयोग किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने पंजाबी, गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में भी योगदान दिया। जायसी की रचनाओं में वेदान्त, योग तथा नाथ
सम्प्रदाय सम्बन्धी विचारों तथा हिन्दू देवी-देवताओं का विस्तृत वर्णन है। “मृगावत’ में परीक्षित के पुत्र जन्मेजय, सुदामा, भोज, भतृहरि आदि महापुरुषों का वर्णन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें हिन्दू धर्म तथा साहित्य का विशद ज्ञान था।
प्रो. रशीद के शब्दों में राष्ट्रीय संगठन की भावना को जागृत करने में सूफी सन्तों का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है।
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