रेशम कीट का जीवन चक्र Silkworm life cycle and types ,शहतूत के रेशम कीट Bombyx mori ,वर्गीकरण ,आर्थिक महत्व, प्रकार,कोया निर्माण,रेशम का धागा निर्माण Silkworm in hindi
Cocoon रेशम के कीड़े एक महत्वपूर्ण आर्थिक महत्व का साधन है आइये हम इसके कुछ सामान्य जानकारी को जानने का प्रयाश करते है
1.रेशम कितने प्रकार के होते हैं ? 2रेशम कीट के लार्वा का नाम क्या है ?3.रेशम कीट का वैज्ञानिक नाम क्या है ?
शहतूत (Mulberry )का वैज्ञानिक नाम क्या है ?
वर्गीकरण Classification of Silkworm
जगत (Kingdom) प्राणी (Animalia)
उग-जगत (Sub-kingdom) मेटाजोआ (Metazoa) बहुकोशिकीय
शाखा (Branch) एण्टेरोजोआ (Enterozoa) जठर गुहा अथवा आहार नाल पायी जाती है।
प्रभाग (Division) बाइलेटेरिया (Bilateria)—शरीर द्विपार्श्व सममित
खण्ड (Section) यूसीलोमेटा (Eucoelomata)—वास्तविक देहगुहा होती है।
संघ (Phylum) आर्थोपोडा(Arthropoda) संधियुक्त जोड़ीदार उपांग
उप-संघ (Sub-phylum) मैण्डिबुलेटा (Mandibulata) मुखांगों में मैण्डिबुल उपस्थित।
वर्ग (Class) इन्सेक्टा (Insecta) वक्ष भाग में 3 जोड़ी संधियुक्त टाँगें तथा 1 या 2 जोड़ी पंख उपस्थित।
गण (Order) लैपिडोप्टेरा (Lepidoptera)—पंखों पर रंगीन शल्क,लार्वा कैटरपिलर।
वंश (Genus) बॉम्बिक्स (Bombyx)!
जाति (Species) मोराई (mori)
रेशम कीट – The Silkworm History
वितरण (Distribution)-आज से लगभग 4590 वर्ष पूर्व (2600 ई. पूर्व) चीन की महारानी सी- लिंग-ची (Si-ling-chi) ने अपने बगीचे में पेड़ों पर सफेद कोयों (Cocoons) को लटके देखा और उन्होंने इन कोयों से सूक्ष्म धागे उतरवाकर, महीन व चमकदार कपड़ा बनवाया जो बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ।
इस प्रकार रेशम उद्योग की शुरुआत सर्वप्रथम चीन में हुई। धीरे-धीरे यह उद्योग यूरोप व एशिया के सभी देशों में फैल गया।
आजकल विश्व में रेशम का उत्पादन अधिकतर जापान, इटली, फ्रांस, स्पेन, भारत व बर्मा में होता है।
विभिन्न प्रकार के रेशम कीट -Types of silkworms
शहतूत के रेशम कीट (बॉम्बिक्स मोराई- Bombyx mori) के अतिरिक्त और भी निम्न रेशम कीट की जातियाँ हैं, जिनमें से कुछ जंगली, कुछ अर्द्धपालित और अन्य पालित हैं। इनमें से सभी जातियों से भारत में रेशम प्राप्त किया जाता है।
(1) टसर रेशम कीट Tasar silkworm (ऐन्थीरिया पफिया-Antheraea paphia L.)—यह बंगाल, आसाम तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के जंगलों में पाया जाता है। यह साल, बेर, गूलर तथा पाखर आदि की पत्तियाँ खाता है। यह अर्द्धपालित कीट है। इसकी सूंडी हल्का भूरा या पीला कोया बनाती है, जो कि वृक्षों पर डण्ठल द्वारा लटका रहता है।
टसर रेशम कीट की एक अन्य जाति Antheraea toyley, हिमालय के तराई भागों में मिलती है तथा इसकी सूंडी ऑक (Oak) पौधे की पत्तियाँ खाती है। इस जाति का कोया सफेद रंग का और सख्त होता है।
(2) ऐरी रेशम कीट eri silkworm (Phloeamia ricini)
यह मुख्य रूप से आसाम के जंगलों में पाया जाता था, परन्तु अब बंगाल, बिहार, उड़ीसा और चेन्नई में भी पाया जाता है। इसकी सूंडी अरण्ड (Ricinus communis) की पत्तियाँ खाती है।
इसके कोयों से प्राप्त रेशम ईंट जैसे लाल रंग या सफेद होता है। इस कोये से रेशम पूरे धागे
के रूप में नहीं उधेड़ा जा सकता, इसलिए इसे साफ कर काटा जाता है। यह रेशम घटिया किस्म का होता है। इस कीट को पाला भी जाता है।
(3) मूंगा रेशम कीट Silkworm (Antheraea assamia H.) यह कीट बिहार पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा आसाम में पाया जाता है। यह अर्द्धपालित कीट है। इसकी सूंडी सिनामोन (Cinnamon) आदि पौधों की पत्तियाँ खाती हैं। इसके कोये का रंग दूधिया या पीले रंग का होता है।
(4) देव मूंगा रेशम कीट (Thiopaila Religiosae H.)—यह उत्तर प्रदेश व हिमालय की तराई में मिलता है। इसकी सूंडी मैचिलिस (Machilis) व फाइकस (Ficus) की पत्तियाँ खाती है। इसका धागा काफी मजबूत व खुरदरा होता है, जिससे मछली पकड़ने वाले जाल बनाये जाते हैं।
शहतूत के रेशम कीट का वर्णन – life cycle of Bombyx mori
(1) प्राकृतिक वास एवं स्वभाव (Habitat and Habit) शहतूत का रेशम कीट बॉम्बिक्स मोराई (Bombyx mori) की सूंडी शहतूत की पत्तियाँ खाती है।
इसके कोये का रंग सफेद होता है। यह कीट हमारे देश में बहुतायत में पाला जाता है। इसके कोये से प्राप्त धागा उत्तम किस्म का होता है।
(2) बाह्य आकार (External features) रेशम का कीट एक शलभ (Moth) है, जो लगभग 30 मिमी लम्बा तथा पंख विस्तार 40-50 मिमी एवं इसका रंग पीताभी-श्वेत (Creamy white) होता है। नर व मादा अलग-अलग होते हैं। नर, मादा की अपेक्षा परिमाण में छोटा होता है।
इसका शरीर सिर, वक्ष व उदर में बँटा रहता है-
(i) सिर (Head)–सिर छोटा, जिस पर एक जोड़ी गोल संयुक्त नेत्र, एक जोड़ी पिच्छकी ऐण्टिनी (Pulmose antennae) और चूसने के अनुकूल मुख उपांग होते हैं। मैक्जिलरी पैल्पाई नहीं होते हैं। मुखांग अक्रियाशील होते हैं इसलिए प्रौढ़ कुछ खाते नहीं तथा 2-3 दिन तक ही जीवित रहते हैं।
(ii) वक्ष (Thorax) वक्ष आगे की ओर पतला, पीछे की ओर चौड़ा तथा तीन खण्डों-अग्र, पश्च व मध्य वक्ष में बँटा रहता है। वक्ष में शल्कों से आवरित दो जोड़ी पंख और तीन जोड़ी टाँगें होती हैं। पंख हल्के व मोती के रंग (क्रीम जैसे) के होते हैं तथा इन पर हल्की पीली या कुछ मटीले रंग की तिरछी धारियाँ होती हैं।
(iii) उदर (Abdomen) उदर 8 या 9 खण्डों में बँटा होता है तथा सारे शरीर से अधिक मोटा होता है तथा हल्के रोम जैसे शल्कों से ढंका रहता है। मादा का उदर अण्डों की उपस्थिति के कारण अधिक स्थूल होता है।
रेशम का जीवन चक्र-life cycle of Silkworm
(3) जीवन इतिहास (Life history) रेशम कीट एकलिंगी होता है इसका जनन काल जून-जुलाई (गर्मी के दिनों) में होता है।
(1) मैथुन क्रिया (Copulation)–मैथुन के समय प्रौढ़ नर व मादा कीट अपने-अपने उदर की नोंक से नोंक सटाकर विपरीत दिशाओं की ओर मुँह करके मैथुन करते हैं।
(ii) निषेचन (Fertilization)-नर द्वारा छोड़े शुक्राणु, मादा के जनन कोष्ठ में अण्डों का निषेचन करते हैं।
(iii) अण्डरोपण (Egg laying)- मैथुन के कुछ समय पश्चात् मादा कीट रात्रि के समय, शहतूत की पत्तियों की निचली सतह पर अण्डे देना शुरू करती है। अण्डे समूहों में तथा पत्तियों की सतह पर चिपके एवं इकहरे स्तर में व्यवस्थित किये जाते हैं।
मादा एक बार में लगभग 300-400 तक अण्डे देती है तथा इन्हें आपस में व पत्ती की सतह से चिपकाने के लिए एक पतला व लसदार तरल छोड़ती है। अण्डे देने के 4-5 दिन बाद मादा मर जाती है।
(iv) अण्डे (Eggs)-प्रत्येक अण्डा चपटा, गोलाकार व हल्के पीले रंग का होता है, जो परिपक्व होने पर काले-भूरे रंग का चित्र 19-10. जीवन चक्र (रेशम कीट) हो जाता है।
(v) अण्डोत्सर्ग (Egg latching)—अण्डे फूटने का समय गर्मियों में 10-12 दिन तथा सर्दियों में 30 दिन का होता है। उचित ताप पर कई घण्टों के बाद प्रत्येक अण्डे से एक छोटा-सा डिम्भक (Larva) निकलता है, जिसे इल्ली या सँडी (Caterpillar) कहते हैं।
(vi) सूंडी या इल्ली (Caterpillar)–अण्डे से निकलने वाली सूंडी लगभग 3 मिमी लम्बी व सफेद रंग की होती है। इसके मुख उपांग काटने व चबाने वाले होते हैं। इसके वक्ष में 3 जोड़ी टाँगें तथा उदर 10 खण्डों में 5 जोड़ी लूंठदार पाद क्रमश: 3, 4, 5, 6 व 10वें खण्ड में स्थित होते हैं।
उदर के 8वें खण्ड की पृष्ठीय सतह पर एक छोटा व पीछे की ओर मुड़ा हुआ शृंगीय उपांग, पृष्ठीय शूक (Dorsal spine) या गुदा शृंग होता है।
शरीर में कई जोड़े पाीय श्वास रन्ध्र (Spiracles) होते हैं, 15 जोड़ी निर्मोची ग्रन्थियाँ भी होती हैं ।
शरीर पर झुर्रियाँ पायी जाती हैं। सूंडी अण्डे से निकलते ही, शहतूत की पत्तियाँ खाना आरम्भ कर देती है तथा 4-5 दिन बाद शिथिल होकर प्रथम निर्मोचन करती है तथा त्वचा के अन्दर से एक बड़ी इल्ली निकलती है, जो शहतूत की पत्तियाँ खाती हुई आकार में वृद्धि कर 6-7 दिन बाद दूसरा निर्मोचन होता है।
इसके 3-4 दिन बाद तीसरा निर्मोचन तथा इसके 7-8 दिन बाद चौथा निर्मोचन होता है। इसके बाद 7-8 दिन तक यह शहतूत की पत्तियों पर भोजन करती हुई अपने आकार में वृद्धि करती है। पूर्ण विकसित इल्ली की लम्बाई 8 सेमी के लगभग होती है।
सूंडी का जीवनकाल लगभग 30-35 दिन का होता है।
कोया निर्माण (Cocoon Formation)
परिपक्व इल्ली अब खाना बन्द कर देती है। इसके शरीर का रंग हल्का पीला होने लगता है। इसके मुख उपांग रेशम बनाने वाली लार ग्रन्थियों में विकसित हो जाते हैं,
जो द्रव रेशम का स्रावण करने लगती हैं। यह द्रव रेशम दो लार वाहिनियों में प्रवाहित होकर कीट के मुख मेंखुलने वाली एक सामान्य निकास नली स्पिनरेट (Spinneret) में पहुँचता है। बाहर निकलने पर द्रव रेशम पाँच तन्तुओं में कठोर हो जाता है। ये पाँचों तन्तु दो अन्य ग्रन्थियों से निकले एक चिपचिपे पदार्थ सेरिसिन (Sericin) द्वारा आपस में चिपक कर रेशम सूत का निर्माण करते हैं। ये रेशम के धागे कैटरपिलर के शरीर के चारों ओर
लिपट कर प्यूपा कोश (Pupal-case) या कोकून (Cocoon) का निर्माण करते हैं ।
केवल एक कैटरपिलर ही 3-4 दिन में लगभग 1000-1500 मीटर लम्बा धागा बनाता है। कोकून निर्माण अँधेरे स्थान में होता है।
कोया Silkworm Cocoon
(vi) कोया या कोशा (Cocoon)—पूर्ण विकसित कोया 38 मिमी लम्बा तथा 19 मिमी चौड़ा अण्डाकार, सफेद या पीले रंग का होता है।
(vii) प्यूपा या क्राइसेलिस (Pupa or chrysalis) करीब 15 दिन में कैटरपिलर कोकून के अन्दर परिवर्धन करके प्यूपा में बदल जाता है।
(viii) वयस्क शलभ (Adult moth)—प्यूपा से वयस्क मॉथ बनने में गर्मी की ऋतु में 20-25 दिन तथा सर्दियों में 3-5 महीने का समय लग जाता है। वयस्क मॉथ बाहर निकलने के लिए अपने मुख से एक क्षारीय (Alkaline) द्रव का स्राव करता है। इस द्रव से कोकून का सिरा आर्द्र हो जाता है और वयस्क मॉथ उस सिरे को चीर कर बाहर आ जाता है। बाहर आने के तत्काल बाद ही मैथुन क्रिया होती है और मादा अण्डे देती है तथा 3-
4 दिन बाद दोनों की मृत्यु हो जाती है।
आर्थिक महत्व- Economic Importance of silkworm
(i) रेशम कीट मनुष्य के लिए अत्यन्त लाभदायक है। रेशम कीट के कोये से अत्यन्त कोमल, मजबूत व चमकदार रेशम सूत प्राप्त होते हैं, जिनसे रेशमी वस्त्र बनते हैं। प्राचीनकाल में चीन ने रेशमी वस्त्रों को सोने की तौल के बराबर बेचा था।
(ii) रेशम का युद्ध में भी महत्व है, क्योंकि इसके धागे से हवाई छतरियाँ (Parachute) बनायी जाती हैं।
(ii) टसर सिल्क मॉथ के कोये से तेल भी निकाला जाता है, जिससे अत्यन्त उपयोगी औषधियाँ बनायी जाती हैं।
(5) रेशम उद्योग तथा रेशम कीट पालन (Sericulture)-व्यापारिक उद्देश्य से रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम कीटों का पालन-पोषण, रेशम कीट पालन (Sericulture) कहलाता है।
After Silkworm farming रेशम का धागा निर्माण
रेशम उद्योग में, रेशम प्राप्त करने के लिए, रेशम कीट के कोकूनों को गर्म जल में डालकर उनके अन्दर के प्यूपों को मार दिया जाता है । इस क्रिया को स्टिफिलिंग (Stifilling) कहते हैं, क्योंकि यदि प्यूपों को कोकूनों में स्वयं ही बाहर निकलने दिया जाये तो वे रेशम के धागे को काट देते हैं।
प्यूपों को मारने के बाद, गर्म पानी में से अच्छे, चमकदार तथा उनके रंग के आधार पर कोकूनों को छाँट लिया जाता है।
अब इन उबले हुए कोयों से धागा उधेड़ते हैं। इस क्रिया में 4 या 5 कोयों के भागों के बाहरी छोरों को मिलाकर एक विशेष प्रकार के लकड़ी के छिद्रों से गुजारते हैं, जिन्हें आइलेट (Eyelet) या गाइड (Guide) कहते हैं ।
इस छिद्र का सम्बन्ध एक चक्र से होता है। इस प्रकार 4-5 धागे एक साथ इस चक्र पर लिपट जाते हैं।
कच्ची रेशम
इन्हीं धागों को फिर दूसरी चर्सी पर लपेटते हैं इसे कच्ची रेशम (Rawsilk) कहते हैं।
कच्चे रेशम से ऐंठा हुआ रेशम (Spun silk) बनाने के लिए इन धागों को पुनः पानी में उबालते हैं तथा रासायनिक अम्लों के घोलों से धोकर अच्छी तरह साफ कर लेते हैं इससे रेशम के धागों में काफी चमक आ जाती है। फिर कई धागों को ऐंठकर रेशम के पक्के धागे बना लेते हैं।
लगभग 25000 कोकूनों से 454 ग्राम रेशम प्राप्त होता है। किसी भी स्थान में रेशम उद्योग लगाने से पहले शहतूत के बाग लगाना आवश्यक हो जाता है तथा कीट पालन में सूंडी को खाने के लिए हर समय पत्तियाँ मिलती रहें। सूंडी को बन्द या खुले कमरों या बरामदों में लकड़ी की तिपाइयों या स्टैण्डों के ऊपर ट्रे रखकर पाला जाता है। इनकी रोजाना सफाई की जाती है तथा विभिन्न अवस्थाओं वाले कीटों को अलग-अलग रखा जाता है।
चींटियों से रक्षा करने के लिए तिपाइयों के पाये के नीचे पानी भरे बर्तन रख देते हैं तथा कीटोन में लगने वाले कवक या जीवाणु, प्रोटोजोआ या वाइरस के रंगों से बचाव के लिए उपयुक्त कवकनाशक तथा जीवाणु नाशक दवाइयां छिडकी जाती है ।