संगम युग (Sangam Age) संगम युग की विशेषताएं,संगम युग का इतिहास, Sangam Yug History in Hindi ,Sangam Yug किसे कहते हैं?
भारतीय इतिहास में संगम युग की विशेषताएं क्या हैं?
संगम युग का इतिहास-Sangam Age
Sangam Yug किसे कहते हैं?
सुदूर दक्षिण के जन-जीवन पर पहले-पहल संगम साहित्य से ही स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन के सम्बन्ध में संगम कवियों ने पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत की है जो निम्नलिखित संकलनों में प्राप्त है-
नरिणई,कुरुन्दोहई, ऐन्गुरूनूरू, पततुत्पत्तु, पदिटुपत्तु, परिपाड़ल, कलित्तोहई, अहनानुरू और पुरनानूरु।
संगम तमिल कवियों का संघ अथवा मण्डल था जिसे राज्याश्रय प्राप्त था जिसके फलस्वरूप संगम के अन्तर्गत तमिल भाषा में विशाल साहित्य की रचना हुई। उपर्युक्त संकलनों में जो रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनकी संख्या 2289 है। ये कविताएँ 473 कवि-कवयित्रियों द्वारा रची गई।
संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि सुदूर दक्षिण के राज्यों में वैदिक यज्ञ का प्रचलन हो चुका था तथा ब्राह्माणों को उदारतापूर्वक दान देना एवं उन्हें प्रसन्न रखना साधारणतया सभी शासकों का उद्देश्य होता था।
भारतीय इतिहास में संगम युग की विशेषताएं क्या हैं?
राजदरबारों में कवि के रूप में ब्राह्मणों का आदर होता था। उन्हें राजाओं से स्वर्ण-मुद्राएँ, भूमि, रथ, घोड़े तथा हाथी भी प्राप्त होते थे। ब्राह्मण वर्ण में अनेक लोग अपना पारम्परिक वैदिक अध्ययन और दैनिक पूजा-पाठ भी करते थे। वे अतिथियों के यथेष्ट सत्कार द्वारा मनुष्य-ऋण के भार से मुक्त होते थे।
Sangam Age वर्ग
दक्षिण भारत में उत्तर भारत के समान चार वर्णों की व्यवस्था न होकर दो वर्ण ही थे-ब्राह्मण और शूद्र। सभी राजा पेशेवर सैनिकों की सेना रखते थे जिनमें ‘वेलालर’ लोगों का काफी महत्त्व था। ये सम्पन्न कृषक थे, फिर भी युद्ध में भाग लेते थे। सेना के नायकों को एनाड़ी की उपाधि दी जाती थी।
वेलालर’ वर्ग के लोग सरकारी पदों पर नियुक्त किए जाते थे। चोल राज्य में उनकी उपाधि ‘वेल’ और ‘अरशु’ तथा पांड्य राज्य में कविदी’ थी।
कृषि में संलग्न लोगों को संगम रचनाओं में आमतौर पर ‘वेलालर’ कहा गया है और उनके प्रमुखों को ‘वेलिर’। इनके अतिरिक्त अनेक व्यावसायिक वर्ग थे।
‘पुलैयन’ नामक जाति रस्सी की चारपाई बनाने का कार्य करती थी। ‘चरवाहों’ का अलग वर्ग था जो पशु चराने के साथ-साथ घरों में बिक्री के लिए प्रचुर मात्रा में दही तथा घी तैयार करते थे।
तमिल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर ‘मलवर’ नाम के लोग रहते थे जिनका पेशा डाका डालना था। ‘एनियर’ नामक बधिकों (शिकारियों) की एक जाति थी जिनके घरों में बड़ी संख्या में धनुष तथा ढाल विद्यमान रहते थे।
इस काल में अनेक प्राचीन जंगली जातियाँ बड़ी निर्धनता की स्थिति में थीं और साथ-साथ नए पेशेवर वर्गों का आविर्भाव भी हो रहा था।
Sangam ( Yug )ageमें कृषि व रहन सहन
कृषि तथा उद्योग की अभिवृद्धि तथा व्यापार की उन्नति होते हुए भी समाज में आर्थिक विषमता स्पष्ट रूप
से थी। जहाँ धनाढ्य लोग ईंट तथा गारे के मकानों में रहते थे, वहाँ निर्धन लोगों के घर कच्चे होते थे और वन प्रदेश की जातियाँ झोपड़ियों में निवास करती थीं। मूल रूप से इन आर्थिक विषमताओं को बाद के काल में कर्मकाण्ड तथा सामाजिक रीति-रिवाजों ने और भी पुष्ट तथा जटिल बना दिया।
संगम साहित्य के अनुसार दक्षिण भारत की भूमि बहुत उपजाऊ थी तथा यहाँ काफी मात्रा में अनाज उत्पन्न होता था। माँस तथा मछली भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। चेर (केरल) राज्य भैंस, कटहल, कालीमिर्च तथा हल्दी के लिए सदैव की भाँति प्रसिद्ध था। चोल राज्य में कावेरी के जल का उपयोग सिंचाई के लिए होता था।
विदेशी व्यापार
इस युग में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार की अत्यधिक प्रगति हुई जो दक्षिण भारत की विशेष समृद्धि का कारण बनीं। विदेशी व्यापार भली-भाँति संगठित था तथा बड़े बन्दरगाह वाले नगर माल के व्यापारिक केन्द्र थे। इन स्थलों पर विभिन्न देशों के लोग रहते थे। तोण्डी, मुशिरी तथा पुहार (कावेरिम्पत्तिनम्) में यवन लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे। रोम के साथ भी प्रचुर मात्रा में व्यापार होता था।
कालीमिर्च, मसाले, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशमी कपड़े, बहुमूल्य रत्न, हीरे, नीलम, कर्पर (कछुए का कवच) निर्यात किए जाते थे जिनके बदले सोना-चाँदी प्राप्त होता था।
तमिल राज्यों का पश्चिम में मिस्र तथा अरब लोगों से तथा पूर्व में मलय द्वीप समूहों और चीन से व्यापारिक सम्बन्ध था। मिस्री नाविक हिप्पालस ने प्रथम् शती ई. में मानसून के सहारे बड़े जहाजों से सीधे समुद्र पार कर सकने की जानकारी प्राप्त की जो एक महत्त्वपूर्ण खोज थी। इससे दक्षिण भारत तथा पश्चिमी संसार के मध्य व्यापक स्तर पर व्यापार होने लगा। यह व्यापार तीसरी शती ई. के मध्य तक होता रहा। रोमन साम्राज्य से होने वाले व्यापार का लाभ भारत के पक्ष में था।
आन्तरिक व्यापार भी उन्नत था तथा कृषि राज्य की आय का प्रमुख स्रोतथा। उरैयूर सूती कपड़ों का बहुत बड़ा केन्द्र था तथा सूत कातना सदैव की भाँति स्त्रियों का ही कार्य था।