Origin of The Earth :Know About In Hindi

Origin of Earth ,

आज हम पृथ्वी की उत्पत्ति (Origin of The Earth)सम्बन्धी धारणाओं के बारी में जानेंगे।

उम्मीद है यह आपको पसंद आएगी

पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी समस्त  विचारधाराओं को

मुख्यत: दो वर्गों में बांटा

गया है।

परिकल्पनाएं -Origin of The Earth

(1 ) एकरूपतावादी परिकल्पनाएं (Uniformitarion Hypothesis)

(II ) प्रलयवादी या द्विपैतृक परिकल्पनाएँ (Cataclymic or Bi-parental

Hypothesis )

Origin of the Earth

(1) काण्ट एवं लाप्लास की नीहारिका परिकल्पना Origin of The Earth

(Nabular hypothesis of Kant and Laplace)-

सन् 1755 में प्रसिद्ध दार्शनिक काण्ट तथा सन् 1796 में फ्रांसीसी गणितज्ञ लाप्लास ने

नीहारिका परिकल्पना द्वारा सौर-मण्डल की उत्पत्ति को समझाने का प्रयास किया।

इस परिकल्पना के अनुसार अन्तरिक्ष  में एक वृहत नीहारिका( Galaxy )की कल्पना की

गयी है जो वर्तमान में सौर-मण्डल  (Solar द्वारा घेरी गयी सम्पूर्ण जगह में फैली मानी जाती है।

यह नीहारिका ही आद्य सूर्य का रूप मानी जाती है। काण्ट ने विभिन्न कारणों से नीहारिका

में घूर्णन गति की उत्पत्ति को समझाने का प्रयास किया है।

काण्ट तथा लाप्लास

केअनुसार सामान्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से घूर्णनशील नीहारिका में संकुचन होता है और

आयतन में कमी होती है जिसके फलस्वरूप नीहारिका में घूर्णन वेग में वृद्धि होती है।

किसी भी घूमते हुए गैसीय पिण्ड में केन्द्र से परिधि की ओर अपकेन्द्री (Centrifugal )

बल तथा इसके विरुद्ध दिशा में अभिकेन्द्री (Centripetal) बल या आकर्षण बल

कार्यरत होता है। ज्यों-ज्यों नीहारिका के घूर्णन वेग में वृद्धि होती है, त्यों-त्यों अपकेन्द्री

बल भी बढ़ता है एवं एक समय यह अपकेन्द्री बल आकर्षण बल से कहीं अधिक हो जाता

है, फलस्वरूप गैसीय पदार्थों की कुछ मात्रा नीहारिका से अलग होकर उसके चारों ओर एक

गैसीय वलय का रूप ले लेती है।

उत्त्पति-Origin Of Earth

इस प्रकार घूर्णनशील नीहारिका से एक के बाद एक गैसीय वलय बनते जाते हैं जिसके

संघनन से विभिन्न ग्रहों की उत्पत्ति होती है। नीहारिका का  शेष  भाग संघनित होकर सूर्य

की सृष्टि करता है। इसी प्रकार से विभिन्न ग्रहों से उपग्रहों की उत्त्पति होती है। इस प्रकार

इस विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण सौर मंडल की उत्त्पति मानी जाती है।

 

(2) वाइजेकर की नीहारिका मेघ परिकल्पना

-सन् 1944 में डॉ. वाइजेकर (Dr- Weizsacker) ने सौर-मण्डल की उत्पत्ति को समझाने

के लिये नीहारिका  मेघ परिकल्पना का प्रतिपादन किया।

Concept-Origin of Earth

इस विचारधारा के अनुसार

अन्तरिक्ष में भ्रमण करता हुआ सूर्य अपेक्षाकृत घने गैसीय पदार्थों एवं धूलकरणों से निर्मित अंतरा

तारकीय मेघ में प्रविष्ट होता है। इस तरह के अंतरा तारकीय मेघ को विसरित नीहारिका

(Diffuse Nebula) कहते हैं जो गैलेक्सीय अन्तरिक्ष में देखे जा सकते हैं। इस तरह की

विसरित नीहारिका अत्यधिक विस्तीर्ण होती है। अत: इस तरह की विसरित नीहारिका में सूर्य.

का प्रविष्ट होना भी सम्भव है। सूर्य गुरुत्वाकर्षण बल के कारण अपने चारों ओर इस

विसरित नीहारिका के गैसीय पदार्थों का एक विस्तृत आवरण बना लेता है। सूर्य के घूर्णन के

कारण गैसीय पदार्थों का एक विस्तृत आवरण क्रमश: मंदगति से घूमने वाली चक्रिका

(Disc) का रूप धारण कर लेता है। इस चक्रिका का विस्तार सौर -मण्डल के विस्तार के

समान माना गया है। इसी वृहत् नीहारिकीय आवरण के संघनन से क्रमश: ग्रहों की सृष्ट

होती है।

(3) हेन्स आल्फवेन की विद्युत चुम्बकीय परिकल्पना

– हेन्स आल्फवेन ने सन्  1942 में विद्युत चुम्बकीय शक्तियों द्वारा इस प्रक्रम को समझाने का

प्रयास किया। आल्फवेन ने विद्युत चुम्बकीय सिद्धान्तों के आधार पर यह सिद्ध किया कि सूर्य के

चारो ओर बना हुआ वृहत् आवरण आयनित हो जाता हैं। इस तरह सौर-मण्डल के समान फैले हुए

वृहत आयनित मण्डल में चुम्बकीय शक्तियों के कारण चुम्बकीय क्षेत्र में आवेशित कणों की गति के

नियमों के अनुसार पदार्थों की मात्रा सूर्य के विषुवतीय क्षेत्र में ही एकत्रित होती है। यह जमाब शनि

तथा बृहस्पति ग्रहों की दूरी पर होता है एवं सूर्य के घूर्णन वेग के कारण ये सूर्य के चारों ओर पॅरिक्रमा

करने लगते हैं। तत्पश्चात् गैसीय एवं अन्य कण क्रमशः संघनित होकर वृहत ग्रहों की सृष्टि करते हैं।

इसी प्रकार से ग्रहों की चुम्बकीय शक्ति के कारण उपग्रहों की सृष्टि होती है।

(4) कुइपर की नीहारिका मेघ परिकल्पना-

सन् 1951 में कुड़्पर ने वाईजेकर  की परिकल्पना को ही अधिक रूपान्तरित करके इस

परिकल्पना को प्रस्तुत किया।

कुड़पर के मतानुसार नीहारिका मेघ के गैसीय पदार्थों एवं धूल कणों से बना हुआ वृहत्

चेक्रीय आवरण टूट कर कई विक्षुब्ध भंवरों का रूप धारण कर लेता है। ये भंवर सूर्य की दूरी

के अनुसार वृहत् होते जाते हैं। कई भंवर सम्मिलित होकर ‘पूर्व-ग्रहों’ (Protoplanets) की

सृष्टि करते हैं। इन्हीं पूर्व ग्रहों से विभिन्न ग्रहों की उत्पत्ति होती है। इस तरह कुट़पर ने सम्पूर्ण

सौर-मण्डल की सृष्टि का विवरण दिया है।

(5) श्मिड्ट की उल्कापिण्ड परिकल्पना

-शिमड्ट के अनुसार भ्रमणशील. सूर्य आकाश-गंगा में उपस्थित नीहारिका मेघ से गैसीय पदार्थ,

धूल-कण तथा उल्का पदार्थों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। इससे सूर्य के चारों और विसरित

कणों झुण्ड (Swams) का एक वृहत् आवरण बन जाता है। सूर्य के आकर्षण बल एवं आकाश गंगा

में भ्रमण की गति के कारण विसरित करणों के ये झूण्ड सूर्य के चारों ओर दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में घूमने

लगते हैं। सूर्य के प्रभाव के कारण ये विसरित झुण्ड विभेदित (Differentiate) होते हैं। गैसीय पदार्थ

ठोस कणों से अलग होते हैं एवं छोटे तथा घने पिण्डो की सृष्टि होती है। सूर्य से अपेक्षाकृत  दूरस्थ  भागों

में गैसीय पदार्थ के संघनन से हल्के पिप्ड निर्मित होते हैं। इन पिण्डों के सम्मिलित होने से विभित्न

ग्रहों  की सृष्टि होती है।

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