History of Shivaji Maharaj In Hindi । मराठा साम्राज्य-छत्रपति शिवाजी

मराठा साम्राज्य-मराठा आन्दोलन-Shivaji Maharaj का इतिहास , छत्रपति शिवाजी का जीवन,मराठों का इतिहास Maratha Empire In Hindi

History of Shivaji Maharaj In Hindi शिवाजी का जीवन परिचय

महाराष्ट्र की परम्परा के अनुसार बहुत पहले ही यह माना जा चुका था कि शिवाजी का जन्म चित्तौड़ के सूर्यवंशी सिसोदिया कुल (गुहिल वंश) में हुआ था।
गोविन्द सखाराम सरदेसाई के अनुसार बीजापुर जिले में मुधौल नामक स्थान के स्वर्गीय राजा, जिनका कुल-नाम घोरपड़े था,के पास फ़ारसी की अनेक सनदें थीं

हालांकि कुछ इतिहासकार इन फरमानों की प्रमाणिकता के ऊपर गम्भीरता के साथ सन्देह करते हैं। मुधौल के इस परिवार और सतारा के पूर्वपुरुष एक ही थे जिनका नाम सज्जनसिंह था। वे चित्तौड़ के राणा लक्ष्मणसिंह के पौत्र थे। दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खल्जी के चित्तौड़ आक्रमण के उपरान्त सज्जनसिंह दक्षिण की ओर चले गए थे तथा वे और उनके भाई एवं उन दोनों के वंशजों ने बहमनी राज्य में गर्वनर के पद पर काम किया और समय-समय पर उनसे जागीरें प्राप्त की जिनके मौलिक लेख-प्रमाण (दस्तावेज़) प्राप्त होते हैं।

दस्तावेज़ों से ज्ञात होता है कि शिवाजी के पिता शाहजी ने अहमदनगर के बादशाहों के योग्य मन्त्री मलिक अम्बर की अधीनता में रहकर विशेष योग्यता तथा बहादुरी से कार्य किया। छापामार युद्धकला में पारंगत इन सेनानियों (मराठों) की सेवा से लाभ उठाकर मलिक अम्बर ने जहाँगीर के द्वारा दक्षिण में अपने राज्य- विस्तार के लिए निरन्तर किए जाने वाले प्रयासों का सफलतापूर्वक अवरोध किया।
प्रो. सतीशचन्द्र के अनुसार मराठे महाराष्ट्र के योद्धा वर्ग के थे तथा कृषि कार्य भी करते थे। उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों तक भी ब्राह्मण पूरे मराठा समुदाय को क्षत्रिय नहीं मानते थे। ग्रांट डफ के अनुसार, “यह (मराठा) शब्द हालांकि कुनबियों या काश्तकारों के लिए प्रयुक्त होता है लेकिन सही अर्थों में यह इस भाग के सैनिक परिवारों तक सीमित है जिनमें से अनेक राजपूतों के वंशज होने का दावा करते हैं जो संदिग्ध तो है मगर असम्भव नहीं।”

मराठा परिवार (Maratha Empire)

शिवाजी के परिवार जैसे कुलीन मराठा परिवार उच्चवर्गीय राजपूतों के दावे कर रहे थे किन्तु ये दावे प्रमुख राजपूत राजाओं को स्वीकार नहीं थे। हफ़्त अंजुमन, सरकार का संग्रह, फोलियो 139ए में उल्लेख है कि मिर्जा राजा जयसिंह ने शिवाजी को राजपूत नहीं माना किन्तु शाहजहाँकालीन ‘मुगल चेहरा दस्तावेज़ों’ (आन्ध्र राज्य अभिलेखागार) में दक्कनी मराठा सैनिकों को राजपूत कहा गया है। अतः प्रो. सतीशचन्द्र का मत है कि इस काल में वर्ण-व्यवस्था में मराठों की स्थिति संदिग्ध थी।
गोविन्द सखाराम सरदेसाई का मानना है कि शिवाजी की महत्ता यह थी कि उन्होंने मराठा जाति की मानसिक दशा का रूप बदल दिया और उसको अपने असाधारण नेतृत्व के जरिये भारत की विभिन्न जातियों के बीच सर्वश्रेष्ठ मान प्राप्त करने में समर्थ बना दिया। शिवाजी ने मराठों की कलहप्रिय एवं साहसी प्रवृत्ति पर पूर्णरूप से इस प्रकार से अधिकार कर लिया कि उन्होंने शंकाहीन होकर उनकी आज्ञा का पालन और अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए संयुक्त राष्ट्रीय प्रयास आरम्भ कर दिया। उन्होंने रस्मी तौर पर शास्त्रों में बताए हुए नियमों के अनुरूप मराठा-राज्य की नींव डाली और छितरे हुए, कलहकारी तत्त्वों के बीच आवश्यक दृढ़ता स्थापित करके, एक अल्पकालीन परन्तु देदीप्यमान जीवनवृत्ति के पश्चात् एक अपूर्व बुद्धि वाले रचनात्मक कार्यकर्ता का उदाहरण छोड़ा वह अपने ढंग का अकेला ही है।

Historian Opinion इतिहासकारों का मत

प्रो. सतीशचन्द्र ने अठारहवें अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्यविद् सम्मेलन (कैनबरा, 1971) में प्रस्तुत अपने आलेख तथा अपनी पुस्तक मराठा पालिटी एण्ड इट्स एग्रेरियन कांसेक्वेंसेज (1968) ने यह मत व्यक्त किया था कि सत्रहवीं सदी में मराठा आन्दोलन के उदय का कारण न तो औरंगजेब और न ही शिवाजी की धार्मिक नीतियाँ थी।
अहमदनगर के विघटन और अकबर की मृत्यु के बाद दक्कन में मुगल सत्ता के धीमे प्रसार ने महत्त्वाकाँक्षी सैनिक दुस्साहसियों को लाज़िमी तौर पर एक अवसर प्रदान किया। इनमें शाहजी और शिवाजी, दोनों ही स्पष्ट रूप से सफल रहे तो मुख्यतः इसलिए कि उनमें कमानदारों और नेतृत्वकर्मियों के निजी गुण विद्यमान थे। शिवाजी ने इसे एक आन्दोलन का रूप दे दिया जिसमें जनसमर्थन के सभी तत्त्व मौजूद थे और जो लगभग एक सौ वर्षों तक जारी रहा।
शिवाजी द्वारा छेड़ा गया आन्दोलन मराठों और कुनबियों को आपस में जोड़ने का एक शक्तिशाली साधन था। बहुत-से कुनबी किसान, जो लूट के लोभ में शिवाजी के परचम तले जमा हो गए थे, कालान्तर में मराठे बनकर सामाजिक सोपान में ऊपर उठने की इच्छा से भी प्रेरित थे।
प्रो. सतीशचन्द्र का मत है कि “मराठा आन्दोलन को मात्र ऐसा राजनीतिक आन्दोलन नहीं मानना चाहिए जिसका उद्देश्य एक उत्पीड़क ‘विदेशी’ शासन को उखाड़ फेंकना और एक स्वतंत्र राज्य खड़ा करना था। वह एक सामाजिक आन्दोलन भी था जो मराठों को उत्कृष्टता की ओर प्रेरित कर रहा था।”


शिवाजी का मूल्यांकन-Valuation About shivaji Maharaj

शिवाजी में असाधारण प्रतिभा, अत्यधिक व्यावहारिक ज्ञान और सूक्ष्म विवेक- शक्ति थी। वे पक्के धर्मात्मा, संयमी और सदाचारी थे। यद्यपि अपने धर्म में उनका विश्वास दृढ़ था तथापि वे धार्मिक रूप से असहिष्णु नहीं थे। वे प्रत्येक धर्म में सच्चाई ढूँढ़ा करते थे और हिन्दू-मुस्लिम सन्तों का आदर करते थे। वे सैनिक कार्यों में भी अत्यन्त दक्ष थे तथा महाराष्ट्र की स्थिति के अनुकूल गुरिल्ला-नीति को अपनाया।
उनकी सेना सुगठित, शिक्षित एवं अनुशासित थी। शिवाजी में अद्भुत संगठन शक्ति थी तथा वे अपने सैनिकों के लिए आदर्श थे। मध्य युग में वे ही सर्वप्रथम् ऐसे शासक थे जिन्होंने जहाजी बेड़े की आवश्यकता पर ध्यान दिया था। उन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए जहाज-निर्माणशालाएँ तथा जहाज बनवाए थे।
शासक और प्रबन्धक के रूप में शिवाजी को उत्कृष्ट सफलता मिली। उन्होंने एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण किया जिसके अन्तर्गत उस युग के अनुकूल प्रजाकी भौतिक और नैतिक उन्नति करने का यथासम्भव प्रयत्न किया गया। वे उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ थे।

शिवाजी का शासन-प्रबन्ध-Shivaji Maharaj Administration

यद्यपि शिवाजी का शासन केन्द्रीकृत था तथापि कल्याणकारी था। उनके आठ मन्त्री थे जो अष्टप्रधान कहलाते थे, ये थे-
1.प्रधानमंत्री अथवा पेशवा जिस पर राज्य के सभी मामलों की देखभाल और प्रजा के हित का उत्तरदायित्व था। सब अफ़सरों पर नियंत्रण रखना और राजकाज को चलाना उसका मुख्य कर्त्तव्य था।

2.हिसाब जाँचने वाला (ऑडीटर) मजमुआदार या अमात्य जिसका काम आय-व्यय के सब लेखों की जाँच करना था।

3.वाकयानवीस जो राजा के दैनिक कार्यों को लिखता था तथा उससे मिलने वालों की सूची तैयार करता था और उनके व्यवहार पर सतर्क दृष्टि रखता था।
4 सचिव जिसका काम तमाम राजकीय-पत्रों को पढ़कर उसकी भाषा-शैली को देखना था। परगनों के हिसाब की जाँच भी इसी के जिम्मे थी।
5.विदेश मन्त्री, दबीर या सुमन्त जो विदेशों से सम्बन्ध रखने वाले मसलों और सन्धि-विग्रह के प्रश्नों पर राजा को सलाह देता था। इसका कार्य विदेशी राजदूत एवं प्रतिनिधियों की देखरेख करना और गुप्तचरों द्वारा दूसरे राज्यों की गुप्त खबरें मँगवाना भी था।
6.सरे-नौबत या सेनापति जिसका कार्य सेना की भरती, संगठन और अनुशासन रखना था। युद्ध क्षेत्र में सेना की तैनाती करना भी इसी का काम था।
7.सदर मुहतसिब या पण्डित राव अथवा दानाध्यक्ष जिसका मुख्य कार्य धार्मिक कृत्यों की तिथि निश्चित करना, पापाचार और धर्मभ्रष्टता के लिए दण्ड देना एवं ब्राह्मणों में दान बँटवाना था। धर्म एवं जाति सम्बन्धी झगड़ों को निपटाना और प्रजा के आचरण को सुधारना भी उसी का काम था।
8.न्यायाधीश जो राज्य का सबसे बड़ा न्यायाधिकारी था। सैनिक व असैनिक न्याय करना और भूमि-अधिकार एवं गाँव की मुखियागिरी आदि के निर्णयों पर अमल कराना उसके मुख्य कार्य थे।
दानाध्यक्ष और न्यायाधीश को छोड़कर अन्य सब मन्त्रियों को समय-समय पर सेना का नेता बनकर युद्ध क्षेत्र में जाना पड़ता था।


भूमि कर व्यवस्था-Shivaji Maharaj land Tax


शिवाजी की भूमि-कर व्यवस्था क्षेत्रमिति के निश्चित सिद्धान्तों के द्वारा किए गए बन्दोबस्त पर निर्भर थी। प्रत्येक गाँव का क्षेत्रफल ब्यौरेवार रखा जाता था और
प्रत्येक बीघे की उपज का अनुमान लगाया जाता था। उपज का 2/5 भाग राज्य ले लेता था और शेष किसान के पास रह जाता था।
शिवाजी की भूमि-कर प्रणाली रैयतवारी (रैय्यतवाड़ी) थी तथा वे जागीरदारों एवं जमींदारों की प्रथा के विरुद्ध थे। उनकी आय का मुख्य स्रोत चौथ था जो विजित राज्यों की आय का चौथा भाग होता था जिसे वसूल करने के लिए शिवाजी उन पर आक्रमण करते थे। चौथ प्रत्येक वर्ष वसूल किया जाता था। उनकी आय का दूसरा
मुख्य स्रोत सरदेशमुखी थी जो राज्य की आय का 1/10 भाग होता था।


शिवाजी के जीवन की प्रमुख घटनाएँ-Historical event of Shivaji Maharaj


1. 1646 ई. में बीजापुर के तोरण नाम पहाड़ी किले पर अधिकार।
2. 1648 ई. में ‘पुरन्दर’ किले को नीलोजी नीलकण्ठ से छीना।
3. 1658 ई. में जावली विजय कर उसे मराठा सरदार चन्द्रराव मोरे से छीना।यह विजय शिवाजी के जीवन में उल्लेखनीय घटना थी क्योंकि इससे उनके राज्य के दक्षिण-पश्चिम में विस्तार के लिए द्वार खुल गए और उनकी सैनिक शक्ति बढ़ गई।
4. 1657 ई. में कोंकण को विजय किया। शिवाजी ने कल्याण और भिवंडी नगरों पर अधिकार करके वहाँ अपनी नौ-सेना के अड्डे स्थापित किए और दमन के आस-पास के पुर्तगाली प्रदेश को लूटा जिसे विवश होकर पुर्तगालियों को मराठा राजा को वार्षिक कर देना पड़ा।
5. 1659 ई. में अफ़जल खाँ का वध किया (2 नवम्बर 1659 ई. को)।
6. 1660 ई. में शिवाजी को असफलता का सामना करना पड़ा जब बीजापुर के सुल्तान के अधीनस्थ कारनूल जिले के अधिकारी सिद्दी जौहर ने पन्हाला का
किला और मुगलों ने पूना से 18 मील दक्षिण में स्थित चकन का किला शिवाजी के हाथों से छीन लिया।
7. 15 अप्रैल 1663 ई. को शिवाजी ने मुगल सम्राट औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ पर पूना में आक्रमण कर उसे परास्त किया।
8. 10 जनवरी, 1664 ई. को शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण करके उसे लूटा किन्तु जब उन्हें यह समाचार मिला कि मुगल सेना नगर की रक्षा करने के लिए तेजी से आ रही है तो वे 20 जनवरी, 1664 ई. को सूरत छोड़कर चले गए।
9. शाइस्ताँ खाँ की असफलता और सूरत की लूट के पश्चात् औरंगजेब ने आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी को कुचलने हेतु नियुक्त किया। 20 अप्रैल, 1665 ई. को उसने वज्रगढ़ मराठों से छीन लिया तथा पुरन्दर का घेरा डाल दिया। 24 जून, 1665 ई. को पुरन्दर की इतिहास प्रसिद्ध सन्धि हुई जो इस प्रकार थी-
(i) शिवाजी ने 23 किले और उनसे लगे हुए उस
प्रदेश का समर्पण कर दिया जिसकी वार्षिक-आय 5 लाख हून थी। ये प्रदेश मुगल साम्राज्य में मिला दिए गए। (ii) राजगढ़ के साथ-साथ शिवाजी के 12 किले और उससे लगी हुई एक लाख हून वार्षिक आय वाली भूमि
शिवाजी के अधिकार में ही रही। शर्त यह थी कि वे शाही तख्त के सेवक और राजभक्त बने रहेंगे।
(iii) शिवाजी को मुगल दरबार में निजी रूप से उपस्थित रहने से बरी कर दिया गया किन्तु यह तय हुआ कि उनके पुत्र शम्भाजी को 5,000 घोड़ों के दल के साथ सम्राट की सेवा करनी होगी जिसके उपलक्ष्य में उसे जागीर मिलेगी। शिवाजी ने दक्खिन में सम्राट की ओर से युद्ध करने का वचन दिया।
10. 1666 ई. में शिवाजी जयसिंह के अनुरोध पर मुगल बादशाह से मिलने आगरा गए। वहाँ औरंगजेब ने उनका अपमान खिलअत न देकर और मनसबदारों की तीसरी पंक्ति में खड़ा रखकर किया। वह उन्हें बन्दी बनाकर किसी न किसी बहाने उनका वध करवाना चाहता था। किन्तु शिवाजी चतुरता से मिठाई की टोकरियों में बैठकर अपने पुत्र शम्भाजी के साथ आगरा से बाहर आ गये
और मथुरा, इलाहाबाद, गोंडवाना और गोलकुण्डा होते हुए पच्चीसवें दिन 22 सितम्बर 1666 ई. को राजगढ़ पहुँच गए। मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु भी 6 सितम्बर, 1667 ई. को बुरहानपुर में हो गई जब वे दक्खिन के राज्यपाल का कार्यभार युवराज मुअज्जम को सौंप कर आगरा लौट रहे थे।
11. 1667-69 ई. के मध्य शिवाजी की मुगल युवराज मुअज्जम के साथ सन्धि हुई जिसमें शिवाजी की ‘राजा’ (Shivaji Maharaj) की उपाधि को मान्यता दे दी गई।
12. 1670 ई. में शिवाजी का मुगलों के साथ पुनः युद्ध हुआ जिसमें शिवाजी को सफलताएँ प्राप्त हुईं। सलेहर के भीषण युद्ध में-जो फरवरी 1672 ई. में हुआ-मुगलों की पराजय हुई और सलेवर एवं मुलहेर पर मराठों का पुनः अधिकार हो गया। इसके बाद पेशवा मोरोपन्त ने उत्तरी कोंकण पर आक्रमण कर जून 1672 ई. में जवाहर और रामनगर को जीत लिया। शिवाजी के जन्मस्थान शिवनेर को छोड़कर बगलाना के लगभग सभी किले मराठों के अधिकार में आ गए।
13. 14 जून, 1675 ई. को काशी के श्री विश्वेश्वर जी गागभट्ट द्वारा रायगढ़ में शिवाजी का राज्याभिषेक किया गया। गागभट्ट ने शिवाजी को राजकीय छत्र प्रदान कर उन्हें ‘छत्रपति’ की उपाधि से विभूषित किया। निश्चलपुरी गोस्वामी नामक प्रसिद्ध तान्त्रिक ने इसे अशुभ मुहूर्त में बताया क्योंकि इसके तुरन्त बाद कुछ ही दिनों में शिवाजी की माता जीजाबाई का देहान्त हो गया। शिवाजी ने इस तान्त्रिक की सलाह पर 4 अक्टूबर, 1674 ई. को राज्याभिषेक का दूसरा समारोह तान्त्रिक विधि से मनाया। इन दोनों राज्याभिषेकों में लगभग 50 लाख रुपये का व्यय हुआ।
14. शिवाजी ने 1677-78 ई. में पूरबी कर्नाटक पर आक्रमण किया। उन्होंने जनवरी 1677 ई. में रायगढ़ से हैदराबाद के लिए कूच किया जहाँ के प्रधानमन्त्री मदन्ना ने कई मील पूर्व उनका स्वागत किया और नगर में एक बड़ा जुलूस निकाला और दक्षिणी प्रदेशों पर आक्रमण करने हेतु समझौता किया गया। शीघ्र ही तुंगभद्रा से कावेरी तक का कर्नाटक का समुद्री प्रदेश शिवाजी के अधिकार में आ गया। शिवाजी ने फौजी एवं नागरिक शासन-प्रणाली को नियमित रूप से चलाने के लिए उसमें अत्यन्त कुशलता एवं तीव्रता से सुधार किया और हाल के जीते हुए प्रदेशों की सुरक्षा के लिए रक्षक दलों की स्थापना की।
15.शिवाजी(Shivaji Maharaj) के उत्कट इच्छा थी कि समुद्र की ओर राज्य की पश्चिम सीमा का विस्तार किया जाये जिससे जहाजी बेड़े द्वारा देश की सुरक्षा के साथ विदेशों से व्यापार भी हो सके।
मुम्बई से 45 मील दक्षिण में जंजीरा नामक एक पथरीला द्वीप था जो राजपुरी खाड़ी के मुहाने को घेरे हुए था। सिद्धी नामक एक हब्शी परिवार का इस पर अधिकार था। जब शिवाजी ने कोंकण प्रदेश के बहुत बड़े भाग को अधिकृत कर लिया तब उनकी इन सिद्धियों से मुठभेड़ हुई। 1669 ई. में सिद्धी नेता फ़तेह खाँ शिवाजी से सन्धि करने हेतु तैयार हो गया किन्तु 1671 ई. में उसके दो साथियों ने उसका विरोध करके औरंगजेब की राजभक्ति स्वीकार कर ली। सिद्धी और मराठों में निरन्तर युद्ध होते रहे किन्तु न तो शिवाजी जीवन के अन्त तक जंजीरा पर विजय पा सके और न ही उनका पुत्र शम्भाजी।

16. 13 अप्रैल 1680 ई. को बीमारी से शिवाजी ( Death of Shivaji Maharaj) का देहावसान हो गया। कालान्तर में शिवाजी के उत्तराधिकारियों के दुर्बल होने से पेशवा की शक्ति बढ़ गई और वह उत्तर भारत की राजनीति में भी दखल देने लगा जिसके परिणामस्वरूप 1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों का सामना अहमदशाह अब्दाली के साथ हुआ जिससे मराठा शक्ति का ह्रास हो गया और वे काफी समय तक पुनः शक्ति प्राप्त नहीं कर सके और अंग्रेजों को उत्तर भारत में अपने प्रसार का अवसर प्राप्त हो गया। बाद में महादजी सिन्धिया और नाना फड़नवीस के नेतृत्व में मराठे पुनः उठ खड़े हुए और उनका अंग्रेजों के साथ युद्ध हुए जिनमें अन्ततः अंग्रेजों को सफलता
प्राप्त हुई।

जहांगीर का इतिहास