Osteo Arthritis in Hindi गठिया रोग या संधिवात : कारण, लक्षण व निदान क्या होते हैं ? आइये जानने का प्रयास करते है ।
गठिया रोग या संधिवात क्या है ?
संधिवात या संधिगत वात विशुद्ध वातरोग है। संधि में रहने वाला विकृत वायु संधियों को नष्ट कर उनमें दर्द और सूजन उत्पन्न करता है । संधियों को नष्ट करने का अर्थ है कि संधियों की स्वाभाविक कार्य-शक्ति में विकार आ जाना ।
संधियों में एक विशेष प्रकार का लचीलापन होता है, जिससे उनमें आवश्यकता अनुसार सिकुड़ने, फैलने का गुण रहता है।
संधियों में रहने वाले वायु के विकृत होने से यह गुण नष्ट हो जाता है, जिससे रोगी अपनी इच्छा अनुसार विकारग्रस्त संधि को सिकोड़ने, फैलाने में असमर्थ हो जाता है । यदि वह प्रयत्न करता है, तो संधि के स्थान पर तीव्र पीड़ा होती है।
गठिया रोग केे कारण : वायु विकृत ( प्रकुपित ) क्यों होता है?
रूखा, ठंडा, कम तथा शीघ्र पचने वाला भोजन लगातार सेवन करने से, अत्यधिक मैथुन तथा रात्रि जागरण, असमय में पंचकर्म करने, देश और काल के विरुद्ध असात्म्य आहार-विहार करने, वमन, विरेचन वस्ति आदि के द्वारा दोषों या रक्त के अधिक मात्रा में शरीर से निकलने, अधिक उछलने-कूदने, तैरने, पैदल चलने, व्यायाम करने तथा किसी चिरस्थायी रोग या किसी कारण धातुओं के क्षय से वायु के रूक्ष आदि गुणों की वृद्धि होकर उसका प्रकोप होता है।
इनके अतिरिक्त चिंता, शोक, क्रोध, भय तथा अधारणीय वेग (मल, मूत्र शुक्र आदि) को रोकने, शरीर में आमदोष की उपस्थिति, चोट, उपवास तथा मर्मस्थान की बाधा, हाथी, घोड़ा, ऊंट, दोपहिया वाहन आदि तेज गति की सवारियों से गिरने से शरीर में रहने वाला वातदोष प्रकुपित होकर विभिन्न वात रोगों को उत्पन्न करता है।
संप्राप्ति एवं गठिया रोग के लक्षण
अपने प्रकुपित होने वाले कारणों से प्रकुपित वायु संधियों (दो अस्थियों के मिलन-स्थल को संधि कहते हैं।) में आश्रित होकर पीड़ा उत्पन्न करता है । रोगाक्रांत संधियों को सिकोड़ने-फैलाने पर भी पीड़ा होती है । उपदंश, फिरंग, पूयमेह आदि संसर्गजन्य रोगों के उपसर्ग से भी यह रोग होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यह प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में होने वाला रोग है। उम्र बढ़ने पर उत्तरोत्तर शरीर के अंगों में शिथिलता तथा कार्य-क्षमता में कमी आती है, संधियों की कार्य-क्षमता में भी कमी आती है। संधियां क्षीण होने लगती हैं। प्रकुपित वात के प्रभाव से
संधिस्थल की तरुणास्थियों (cartilages) में खरता उत्पन्न हो जाती है । इस रोग से पीड़ित संधि के अंग से जब कोई चेष्टा (कार्य) की जाती है, तब ये क्षीण हुई तरुणास्थियां दो अस्थियों (हड्डियों) के अग्रभागों को आपस में रगड़ खाने से नहीं बचा पाती हैं । संधि की दोनों अस्थियों के आपस में रगड़ खाने से अस्थियों के अग्रभाग खर हो जाते हैं तथा संधिकोष में रहने वाली श्लेष्मल कला (Mucous Membrane) मोटी तथा कठोर हो जाती है, लेकिन संधिकोष नष्ट नहीं होता।
वैसे तो यह रोग समस्त संधियों में हो सकता है, लेकिन जिन संधियों से जीविकोपार्जन का कार्य अधिकांश रूप से लिया जाता है, वे संधियां ही अधिकांश रूप से इस रोग की चपेट में आती हैं।
संधियों में होने वाली वातज पीड़ा (दर्द) तथा शोथ (सूजन) को ही संधिवात कहते हैं । इस रोग में संधियों में जकड़न होने से उनके स्वाभाविक रूप से कार्य करने की शक्ति नष्ट होती है। संधि के स्थान पर रहने वाली तरुणास्थि (cartilage) क्रमश: कठोर होते हुए अंत में अस्थि का रूप धर लेती है, जिससे संबंधित संधि की कार्य-शक्ति पूरी तरह नष्ट हो जाती है तथा संधि के स्थान पर कठोरता और उभार हो जाता है। संधिवात के समान ही आमवात तथा वातरक्त व्याधियों में भी उपरोक्तानुसार लक्षण होते हैं, किंतु निम्न विशेषताओं के कारण संधिवात का निश्चित निदान हो जाता है-
1 संधिवात रोग केवल बड़ी संधियों में ही होता है।
2 दोनों तरफ की संधियां प्रभावित होती हैं। एक घुटने की संधि में यह रोग हो, तो दूसरे घुटने की संधि में भी होता ही है।
3 इस रोग में पहले संधि में सूजन होती है तथा बाद में कठोरता हो जाती है।
4 आक्रांत संधि पर तीव्र पीड़ा होती है। मालिश करने से लाभ होता है।
संधिवात के लक्षण व सावधानीयां
मोटे व्यक्तियों के घुटने की संधि में यह रोग अधिक होता है । इसके अतिरिक्त अनेक व्यक्तियों में उनके व्यवसाय (कार्य) के अनुसार ही कुछ संधियों को अत्यधिक कार्य करना पड़ता है, जिसके कारण प्रौढ़ावस्था में वे ही संधियां अधिक क्षीण हो जाती हैं।
उदाहरणार्थ घड़ीसाज, बुनकर (हाथों से कपड़ा बुनने वाले), धोबी (कपड़ों को कूटकर धोनेवाले), भारी
वाहन के चालक (ट्रक, बस चलाने वाले) आदि।
इन व्यक्तियों के विभिन्न कार्यों के अनुसार विशेष संधियों को ही काम करना होता है, जिससे इस रोग के होने पर वे ही संधियां मुख्य रूप से प्रभावित होती हैं।
चोट लगने तथा विभिन्न प्रकार के खेल खेलने, कूदने पर सहसा ही किसी संधि में झटका लगने से भी यह रोग हो जाता है।
इस रोग में संधि के अंदर सूजन नहीं होती, किंतु बाहर की ओर सूजन हो सकती है। आराम करने के बाद या बहुत देर तक बैठे रहने के बाद जब व्यक्ति चलता या कोई कार्य करता है, तब रोग से आक्रांत संधि में जकड़न तथा पीड़ा होती है, जो कुछ देर चलने या कार्य करने के बाद कम हो जाती है। घुटने की संधि में यदि यह रोग होता है, तब चलने-फिरने पर भी दर्द बढ़ जाता है । सीढ़ियां चढ़ने की अपेक्षा उतरने के समय अधिक दर्द होता है । वंक्षण संधि भी इससे प्रभावित होती है।
पीठ तथा कमर में प्रायः दर्द होता रहता है, पर यदा-कदा रोग पृष्ठवंश (मेरूदण्ड) को ही अधिक प्रभावित करता है।
गर्दन से नीचे की संधि में भी यह रोग हो सकता है।
संधिवात रोग में विशेष बात यह है कि इस रोग में संपूर्ण संधियों में दर्द नहीं होता। सूजन बिल्कुल नहीं होती या बहुत कम होती है। यह रोग क्रमश: धीरे-धीरे बढ़ता है। संधियों में खरता (Stiffness) आने के फलस्वरूप एक बार यह रोग हो जाने के बाद थोड़ा-बहुत बना ही रहता है । यदि किसी तरह की चोट लगने पर यह रोग उत्पन्न हुआ है, तो रोग के ठीक होने की संभावना रहती है। यदि रोग का निवारण हो भी जाए, तब भी आक्रांत संधि की कार्य-क्षमता में कमी आ ही जाती है।
निदान के चिकित्सा सिद्धांत
यह संधियों में होने वाला रोग है। इसलिए जिस संधि में यह रोग होता है, उसके द्वारा की जाने वाली चेष्टा (कार्य) कम कर देना चाहिए। ध्यान देने योग्य बात है कि कार्य बिल्कुल बंद नहीं करना चाहिए। कार्य बिल्कुल बंद
कर देने से संधि में जकड़न हो जाती है। इस रोग में स्नेहन, अभ्यंग (मालिश), स्वेदन, उपनाह, लेप, वस्ति तथा औषधियों का प्रयोग लाभकारी है।