Bhartendu Harishchandra Ka jivan parichaya (Biography) भारतेन्दु हरिशचंद्र का जीवन परिचय हिंदी में
Bhartendu Harishchandra का जीवन परिचय
Bhartendu हरिशचंद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश
भारतेन्दु हरिशचंद्र का जीवन-वृत्त – भारतेन्दु का जन्म सन् 1850 में हुआ था। हिन्दी-साहित्य का यह मेधावी साहित्यकार केवल 34 वर्ष तक जीवित रहा और इसकी मृत्यु सन् 1884 में हो गयी । जीवन के छोटे-से काल में जो कुछ भी इस लेखक ने हमें दिया, वह शायद ही कोई अन्य पुरुष इस अवस्था में दे सकता था। भारतेन्दु जी एक महान् राजनीतिज्ञ, समाज-सेवी और साहित्यकार थे ।
इन्होंने समाज को खुली आँखों से देखा, उसे परखा और इस विषय पर अपनी भावनाएँ प्रकट की। इस महान् साहित्यकार ने इस युग की भाषा एवं साहित्य पर प्रभाव डाला ।
15 वर्ष की अवस्था में ही इनको परिवार के साथ जगन्नाथ धाम जाने का अवसर मिला। इसी समय उन्हें बंगाल में जनजागरण के उगते हुए नव-साहित्य को देखने व पढ़ने का अवसर मिला। इस साहित्य का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वहाँ से लौटने के पश्चात् वह घर में चैन से न बैठ सके। केवल 17 वर्ष की अवस्था में इन्होंने ‘कवि वचन सुधा’ नाम की एक पत्रिका निकाली। इसके पश्चात् उन्होंने भारतेन्दु मैगजीन नामक पत्रिका निकाली । आरम्भ में तो इन पत्रिकाओं में ब्रजभाषा की कविताओं को ही स्थान मिला, किन्तु बाद में इसमें सभी प्रकार की कविता, गद्य-लेखन इत्यादि को भी स्थान मिला ।
भारतेन्दु जी ने छोटी-सी अवस्था में ही एक युग-प्रवर्तक का कार्य किया।
इन्होंने केवल कविताएँ ही नहीं, अपितु साहित्य की अन्य विधाएँ, जैसे नाटक का भी प्रणयन किया। भारतेन्दु में नैतिक और धार्मिक कविता का भी विकास हुआ। एक ओर इन पर भक्ति परम्परा का प्रभाव था तो दूसरी ओर वह रीति काव्य से स्वयं को सर्वथा मुक्त न कर पाए ।
आचार्य शुक्ल लिखते है-“अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा
से केवल एक ओर तो वे पद्माकार और द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते हैं, दूसरी ओर बंग देश के माईकल और हेमचन्द्र की श्रेणी में। एक ओर तो राधाकृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नव भक्तकाल गुंथते हुए दिखाई देते हैं, दूसरी ओर मन्दिरों के अधिकारियों और टीकाधारी भक्तों के चरित्र की हँसी उड़ाते और स्त्री-शिक्षा और समाज-सुधार पर व्याख्यान देते हुए पाए जाते हैं। प्राचीन और नवीन के इस संधिकाल में जैसी शीतल कला का संचार अपेक्षित था वैसी ही शीतल कला के साथ भारतेन्दु का उदय हुआ, इसमें सन्देह नहीं ।
Bhartendu Harishchandra साहित्यिक विशेषताएँ
डॉ० गणपति चन्द्रगुप्त भारतेन्दु जी की साहित्यिक विशेषताओं का गुणगान करते हुए लिखते हैं-“युग-प्रवर्त्तन एवं युग का नेतृत्व करने के लिए केवल नए युग का ज्ञान या बोध पर्याप्त नहीं, उस ज्ञान या बोध को सच्ची अनुभूति एवं सहज अभिव्यक्ति के माध्यम से जनसाधारण के हृदय तक पहुंचा देने की क्षमता भी अपेक्षित है। निःसन्देह भारतेन्दु हरिशचंद्र में यह क्षमता थी और इसी के बल पर वह अपने युग को सच्चा एवं सफल नेतृत्व प्रदान कर सके, ऐसा हमारा विश्वास है ।
भारतेन्दु जी का जन्म ऐसे काल में हुआ जबकि कविता में शृंगारिकता को प्रधानता दी जाती थी, किन्तु भारतेन्दु जी ने इस शृंगारिकता से समाज का ध्यान हटाकर देश-प्रेम की ओर लगाया। भारतेन्दु बाबू ही थे, जिन्होंने स्पष्ट स्वर से भारत- वासियों को ललकारा और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए आह्वान किया-
सब तजि गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप लातैं खाव।
राजा करैं सो न्याव है, पासा वरे सौ दाँव ।।
भारतेन्दु हरिशचंद्र
डॉ० रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु को जनवादी आन्दोलन का प्रवर्त्तक माना है और इनके साहित्य को जनवादी साहित्य । इस समय का भारतीय नवयुवक अपनी
भाषा में लिखना अपमान समझता था। इस बात को इन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।” इन्होंने सभी से कहा कि जितना भी कोई लिख सकता है, छपवा सकता है अथवा प्रचार कर सकता है, करे। मैं भी करूंगा। इस प्रकार इन्होंने अपनी भाषा के प्रचार व प्रसार के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किये ।
Bhartendu Harishchandra की रचनाएँ
इन्होंने अनेक मौलिक नाटकों की रचना की और अनेक नाटकों के अनुवाद प्रस्तुत किए। इनके मौलिक नाटक हैं- चंद्रावल, भारत दुर्दशा, वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति, नीलदेवी, अन्धेर नगरी, विषस्य विषमोषधम और प्रेम जोगिनी, मुद्राराक्षस, सत्य हरिश्चन्द्र, विद्या सुन्दर, भारत जननी, कर्पूर मंजरी रत्नावली और दुर्लभ बन्धु आदि इनके अनूदित नाटक हैं।
भारतेन्दु के नाटकों की भाषा सरल है। इन्होंने उस समय के समाज की साधारण भाषा को ही अपने नाटकों में प्रयोग किया। कविता में मुख्यतः इन्होंने ब्रजभाषा तथा गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया है। इनकी साधारण ब्रजभाषा में रचित एक कविता देखें। इसमें इनके सरकार के प्रति विद्रोह का पता चलता है।
महंगी और टिकस के मारे।हमहिं क्षुधा पीड़ित तन धाम ॥
इस प्रकार एक ओर तो सरकार के प्रति रोष ओर दूसरी ओर समकालीन भारतीय समाज का चित्रण इस कविता के माध्यम से बन पड़ा है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में एक ओर समाज की बुराइयों पर व्यंग्य कसे गए हैं तो दूसरी ओर इसमें देश-भक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। देश-भक्ति की भावना का एक उदाहरण देखें-
“रोवहुँ सब मिलि के आवह भरत भाई ।
हा ! हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई ।”
वह अपने देश के लिए भक्ति को प्रदर्शित करने के लिए, देश के उद्धार के लिए भगवान् से प्रार्थना करते हैं-
“डूबत भारत नाथ बेगि जागो अब जागो ।
आलस दव एहि दहन हेतु चहु दिसि सो लागो ॥”
भारतेन्दु हरिशचंद्र के साहित्यिक महत्त्व
इस प्रकार कविता एवं नाटकों की सभी विधाओं में जन-जागरण प्रस्तुत करने वाले नायक के लिए डॉ० रामविलास शर्मा के यह शब्द द्रव्य हैं- “भारतेन्दु स्वदेशी आन्दोलन के ही अग्रदूत न थे, वे समाज-सुधारकों में भी प्रमुखथे। स्त्री-शिक्षा विधवा-विवाह, विदेश-यात्रा आदि के वह समर्थक थे।” इस प्रकार एक अच्छे कवि, नाटककार और नागरिक होने के नाते वह आपस में बातचीत करने व दूसरों को लिखने के लिए भी प्रोत्साहित किया करते थे। उनके इसी प्रोत्साहन की प्रतीक थी भारतेन्दु मंडली । बालकृष्ण भट्ट, पं० प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमधन इत्यादि इस मंडली के प्रमुख सदस्य थे I
नौ वर्ष की अवस्था में कविता आरम्भ करके 34 वर्ष तक की अवस्था तक महान कार्य करने वाले युग-प्रवर्त्तक भारतेन्दु हरिशचंद्र के नाम से ही इस पूरे काल का नाम भारतेन्दु युग पड़ा।
Bhartendu Harishchandra युगीन रचना एवं रचनाकार
बदरी नारायण चौधरी “प्रेमघन “
आनन्द अरुणोदय, हर्षादर्श, मयंक महिमा, वर्षा-
बिन्दु, लालित्य लहरी, बृजचन्द पंचक ,जीर्ण जनपद हार्दिक ,अलौकिक लीला,
भारतेन्दु हरिशचंद्र
विनय-प्रेम पचासा,वर्षा-विनोद,प्रेम-फुलवारी, फूलों का
गुच्छा (खड़ी बोली में) वेणु-गीति,दशरथ विलाप,प्रेम मालिका,प्रेम सरोवर ,गीत गोविन्दानन्द
प्रताप नारायण मिश्र
मन की लहर, शतक,तृप्यन्ताम्, शृंगार विलास, ब्रेडला
स्वागत,प्रेमपुष्पावली,दंगल खंड,लोकोक्ति
राधा कृष्ण दास
कंस वध (अपूर्ण), देश दशा,भारत बारहमासा,
जगमोहन सिंह
ऋतु संहार (अ०), श्यामालता, प्रेमसंपत्ति लता ,देवयानी, श्यामा- सरोजिनी, मेघदूत (अ०)
अम्बिका दत्त व्यास
पावस पचासा, हो हो होरी,सुकवि सतसई,
भारतेन्दु हरिशचंद्र के दोहे अर्थ सहित
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
शब्दार्थ : निज = अपनी हिय हृध्य | सूल = पीड़ा ।
प्रसंग– प्रस्तुत अंश महाकवि भारतेन्दु हरिशचंद्र द्वारा लिखित ‘हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान’ शीर्षक से है। इसमें भारतेन्दु जी ने हिन्दी भाषा-साहित्य के प्रति अपनी अपार श्रद्धा-आस्था को व्यक्त किया है।
व्याख्या-भारतेन्दु जी कह रहे हैं कि मेरे जीवन की एक मात्र धारणा और विचार है कि जीवन की सभी प्रकार की उन्नति की जड़ तो अपनी मातृ-भाषा हिन्दी ही है। इसकी ही उन्नति से जीवन की सभी प्रकार की उन्नति हो सकती है अन्यथा और कोई उपाय नहीं है। इसीलिए अपनी इस मातृ-भाषा हिन्दी के ज्ञान और उन्नति के बिना मेरे हृदय की पीड़ा किसी प्रकार से दूर नहीं हो सकती है।
विशेष – 1. भाषा ब्रजभाषा है ।
2.राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति सच्चा प्रेम व्यक्त हुआ है।
अंगरेजी पढ़िके जदपि, सब गुन होत प्रवीन ।
पं निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ||
शब्दार्थ– प्रवीन गुणवान, पण्डित । निज- अपनी । हीन – मूर्ख ।
प्रसंग– प्रस्तुत अंश महाकवि भारतेन्दु हरिशचंद्र द्वारा लिखित ‘हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान’ शीर्षक से है। इसमें भारतेन्दु जी ने हिन्दी भाषा साहित्य के प्रति
अपनी अपार श्रद्धा-आस्था को व्यक्त किया है।
व्याख्या – अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों के प्रति यहाँ कवि अपनी उदासीनता व्यक्त करता हुआ, मातृ-भाषा के महत्व की ओर इंगित करता हुआ कह रहा है कि
यद्यपि यही है कि आज अनेक भारतीय अंग्रेजी भाषा को पढ़कर ब्रिटिश साम्राज्य में बड़े गुणवान् तथा पण्डित बन रहे हैं, तो भी भारत में रहने पर अपनी मातृभाषा के ज्ञान के अभाव में वे पण्डित और चतुर होने पर भी मूर्ख-के-मूर्ख ही बने रहते हैं।
Bhartendu Harishchandra कुछ प्रश्न (Faq)
भारतेंदु हरिशचंद्र की भाषा शैली कैसी थी?
उत्तर – भाषा शैली ब्रजभाषा कविता के लिए व खड़ी बोली गद्य लेखन में
भारतेन्दु युग के दो निबंधकारों के नाम लिखिए
उत्तर -राधा मोहन दास, जगमोहन सिंह
भारतेन्दु युग (आधुनिक काल) कब से कब तक है?
उत्तर-आधुनिक काल 1850-1900 तक
भारतेन्दु युग की पत्रिका है?
उत्तर-कवि वचन सुधा, भारतेंदु मैंगजीन
भारतेन्दु युग के कवि और उनकी रचनाएँ बतााओ
उत्तर-सेवक, लछिराम, सरदार
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता का नाम क्या था?
उत्तर-गोपाल चंद्र गिरिधर